वो भी क्या दिन थे
झड़ी लगती थी बरसात की
मुश्किल होता था घर से निकलना
दादी की डांट,दादा की झिड़की
पानी आ रहा है,बंद करो खिड़की
बंद हो जाता था
सड़कों पर जाना
घरों में घुटता था दम
सीलन भरी दीवारें
हर तरफ पानी ही पानी

कपड़े सूखते नहीं थे
हर दिन
अलग अलग कपड़े
पहनने को मिलते थे
कभी कभी नए भी
क्योंकि गीले कपड़ों की
लग जाती थी भरमार

वो भी क्या दिन थे
आंगन में
हम बच्चे भीगते थे
दिन में कई बार
और फिर पड़ती थी
दादी की मार
रोती थी दादी
कपड़े सूखते नहीं
और ये बदमाश बच्चे
भीगने से नहीं आते
बाज

वो भी क्या दिन थे
कागज की
बनाते थे नाव
एक - दो नहीं
ढेर सारे
और फिर
शुरू होती थी
जिद
उसे बहाने की
पानी की तेज धार में
याद है...
दादा की गोद
जिसमें बैठकर
छाते में
जाते थे सड़कों पर
बहाने अपनी कागज की नाव
सड़कों पर
बहते पानी में
देख अपनी नाव
होती थी इतनी खुशी
जैसे अपनी नाव
तैर रही हो
बीच समन्दर में

वो भी क्या दिन थे
बरसात में लगती थी ठंढ
क्योंकि होता था
हर तरफ पानी ही पानी
और बहती थी
तेज हवाएं
दादी के आंचल में
छुप कर सुनते थे
राजा-रानी की कहानियां
बनता था हर दिन
गरमागरम पकौड़ियां
और खाते थे
हम बच्चे चटनी के साथ
जिसमें नहीं होती थी
मिर्च
ये भी होता था
दादी की मेहरबानी
क्योंकि
वही पीसती थी चटनी
अपने हाथों से
क्योंकि घर में नहीं था
मिक्सर-ग्राइंडर
सिल पाटी की
उस चटनी का स्वाद
आज भी याद है
जिसे याद कर
सिहर जाता हूं
क्योंकि आज भी
उस स्वाद को
ढूंढने की कोशिश करता हूं

वो भी क्या दिन थे

2 टिप्पणियाँ:

कल फेसबुक पर रवीश कुमार जी की टिप्पणी पढ़ रहा था। कह रहे थे कि जिंदगी में एक शुरुआत और एक अंत क्यों होता है।
काश हम बार बार शुरुआत कर पाते... वापस लौटते

वो भी क्या दिन थे... सच में....
अब न कागज की नावहै... न दादी...न. पकोडियां....और चटनी... और न बारिश....
सच वो दिन बहोत अच्छे थे....

कहीं पढ़ा था... शायद अमृता प्रीतम को... की काश अपनी जिंदगी... स्लेट की तरह होती... और हम उसपर अपने मन से जो चाहते उस तरह लिखते... जिंदगी का कोई फलसफा अच्छा न लगे... तो उसे मिटा कर फिर से लिख लेते... काश हम अपनी जिंदगी फिर शुरू से शुरू कर पाते.....
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