जाने कहां गए वो दिन
खुली हवा में सांसे लेना
लंबा लंबा डग भरकर
लंबी सैर पे जाना
बातें करते करते
जाने कितने लोगों को
प्रणाम कहना
हालचाल पूछना
अनजाने चेहरे को देखकर
ताज्जूब करना

खेतों से चने के पौधे
उखाड़कर
खाना
गेहूं की बालियों से
खेलना...
उछालना
हवा में
और चलते रहना

पैरों से
रस्ते में पड़े
पत्थरों को
ठोकर मारना
और देखना
कितनी दूर गए
पत्थर

जाने कहां गए वो दिन

रिक्शे के पीछे लटकना
छुपकर
ट्रैक्टर को
दौड़कर पकड़ना
फिर कूद जाना
किसी की साईकिल के
पहिए से हवा निकाल देना
किसी की सीट गायब कर देना
किसी के सिर में च्यूंगम चिपकाना
किसी को पीछे से धप्पा मारना

जाने कहां गए वो दिन

बिना शोर किए सुबह सवेरे
निकल पड़ना
फुटबॉल- क्रिकेट खेलने
और दरवाजे को बस
धीरे से सटाकर चले जाना
बिना ये सोचे
कि कोई चोर
घुस सकता है
मेरे घर से
रात अंधेरे
सावन में
कनैल के
ढेर सारे फूल तोड़ना
और फिर सुनना
माली की गाली
सच्च...
कितनी खुशी होती थी
जाने कहां गए वो दिन

वो बगिया में
आधा किलो
अमरुद खरीदना
और फिर
चार किलो से अधिक
चुराना
क्योंकि
माली चाचा को दिखता कम था
जब तक चलता था पता
हम सब हो चुके होते थे
रफूचक्कर
छोटी सी बगिया में
धमाचौकड़ी मचाना
एक दौरे में
तहस नहस करना
जाने कहां गए वो दिन

बचपन के दिन
बेफिक्री के दिन
दिन सिर्फ वर्तमान के
जिसमें नहीं होती थी
भविष्य की चिंता
चिंतन तो था ही नहीं
जाने कहां गए वो दिन

2 टिप्पणियाँ:

सर जो दिन गए वो गए... लेकिन मैं सोच रहा हूं कि आने वाले दिनों को खूबसूरती से जिया जाए।
जल्द ही मै कोई फैसला लेने वाला हूं, और ये फैसला फरवरी की तरह कच्चा नहीं होगा

बीते हुए दिनों को याद करने का मौसम है मेरे दोस्त....