लगता है नेता किसी भी पार्टी का हो...किसी भी स्तर का हो...बस चुनाव के मौके का इंतज़ार करता है......सभी नेता ...चाहे सोनिया-राहुल हों...या फिर आडवाणी या राजनाथ...सब से सब कुछ मामलों पर पांच साल ग़जब के चुप रहेंगे...जैसे उनकी बोलती बंद हो गई हो,....लेकिन चुनाव आने पर ऐसे बोलने लगें हों जैसे जेल से छूटकर आए हों....और पहली बार बोलने का मौका मिला हो....जैसे कांग्रेस के हाथ आया है कंधार का तुरुप का पत्ता...तो बीजेपी ने निकाला स्विस बैंक में छुपा धन....कंधार मामले में कांग्रेस की चिंता बेमानी है क्योंकि देश के सौ से ज्यादा लोगों की जान के बदले तीन आतंकियों की रिहाई सही नहीं तो गलत भी नहीं कही जा सकती...खुदा न करे अगर राहुल बाबा या प्रियंका गांधी को आतंकी कैद कर लें ..तो कांग्रेस की बोलती बंद हो जाएगी....और जो आतंकी कहेंगे वो करने को मजबूर हो जाएगी कांग्रेस की सरकार और तथाकथित हो हल्ला करने वाले लोग....क्योंकि तब उनके परिवार....उनके बेटे-बेटियों की बात होगी.....कांग्रेस ये क्यों भूल जाती है कि कंधार मामले में बीजेपी सरकार ने जो किया वो समय का तकाज़ा था....जरुरत थी.....क्योंकि देश का हर शख्स भारत माता की संतान है.....और किसी भी प्रजातांत्रिक देश में नागरिकों की सुरक्षा सरकार का पहला दायित्व होता है...होना चाहिए.....ये अलग बात है कि आतंकियों से निपटने के लिए कोई कारगर रणनीति न तो कांग्रेस सरकार बना पाई न ही बीजेपी...और न ही लगता है कि किसी पार्टी के पास कोई योजना हो........
और अब बात आडवाणी की वाणी की.....स्विस बैंक में कई लाख करोड़ रुपए जमा होने की बात पर आडवाणी जी अड़े हुए हैं कि अगर एनडीए-बीजेपी की सरकार बनी तो सौ दिन के भीतर स्विस बैंक में जमा देश के काला धन को वापस लाने की पूरी कोशिश करेंगे....कोशिश हम कह रहे हैं...आडवाणी जी तो लाने के लिए कृत संकल्प लगते हैं.....चुनाव को मौसम है....आडवाणी जी बीजेपी के लौह पुरुष हैं....कह रहे हैं तो जरुर लाऐंगे....लाना भी चाहिए....देश का पैसा विदेश में क्यों रहे....देश में रहे....देश के विकास के लिए काम करे....लेकिन स्विस बैंको में जमा पैसा क्या वाकई आडवाणी जी ला पाऐंगे....या कोई भी प्रधानमंत्री ला पाएगा....कत्तई नहीं....लाना मुश्किल हो ...ऐसा नहीं लेकिन जिन लोगों का पैसा वहां जमा है...वो देश के साधारण नागरिक तो नहीं हैं....विशिष्ट हैं....होगें ही....ऐसे ऐसे-गैरे नत्थू खैरे की स्विस बैंक में एकाऊंट तो होती नहीं......और न कोई दस बीस हज़ार रुपए जमा करने के लिए स्विस बैंक का रुख़ करता है.....जिन लोगों के पैसे होंगे वो उद्योगपति भी कम ही होंगे.....क्योंकि उद्योगपति निवेश में विश्वास करता है.....स्विस बैंक में जिनके जमा पैसे होंगे....वे आला अफसर होंगे.....वो भी कम.....ज्यादा लोग तो इंडिया यानी भारत माता के सच्चे सपूत होंगे...जिन्होंने न जाने कितनी बार संविधान की शपथ खाई होगी.....भारत माता की सौगंध खाई होगी..जी हां मेरा इशारा नेताओं की तरफ ही है....और आडवाणी जी भी नेता हैं....कैटगरी एक तो सहानुभूति भी होगी ही....होनी भी चाहिए...अपने इंडिया में हर कोई अपनी बिरादरी का सहयोग करता है......आप इमानदार हैं...लेकिन बाकी के सभी हैं...मुझे शक है....और मेरा संदेह गलत नहीं.....चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनने के बाद जो सबसे पहली बात आपके दिमाग में चलेगी वो होगी अपनी सरकार को पांच साल तक बचाए रखने की....मनमोहन जी की प्राथमिकता भी यही रही....आपकी भी होगी....क्योंकि अब किसी एक पार्टी को बहुमत तो मिलने से रहा......यानी कुल मिलाकर चुनाव के बाद आप भूल जाऐंगे....कि स्विस बैंक में भारत का पैसा भी है.....होगा भी तो आपके आंकड़े कम हो जाऐंगे...जैसा कि अभी पी चिदंबरम साहब कह रहे हैं.....मनमोहन सिंह जी कह रहे हैं......लेकिन चुनाव है...जनता से कुछ न कुछ बड़ा...ठोस वादा करना है तो ये भी कह दिया......पांच साल जनता को कहां याद रहता है किस पार्टी ने क्या कहा....कब कहा....उसे तो बस दो जून रोटी की फिक्र होती है.....और चुनाव के मौसम में वैसे भी नेता ...सभी पार्टियों के इतने वादे करते हैं कि दो-चार पूरे हो गए तो समझो बहुत है.....अधिकतर तो छूट जाते हैं.....जनता भूल जाती है.....और पांच साल बाद फिर वहीं वादे...फिर वही वाणी...फिर वही जनता...फिर नई कहानी.......

चुनाव प्रचार के नाम पर
दे रहे एक दूजे को गाली
जीत नहीं पाए तो भईया
क्या करेंगे खाली
क्राइम करेंगे,लूटेंगे
चलाऐंगे बम बंदूक
आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तो
लूटेंगे सामान और संदूक
लूटेंगे संदूक,करेंगे गुंडागर्दी
जो मन में आएगा
करेंगे मन की मर्जी
वसूलेंगे जनता से
चुनाव का खर्चा
कहेंगे वोट नहीं दिए
पर अब दो सारा खर्चा
सामाजिक समस्याओं पर
करेंगे चर्चा
सांसद नहीं बनें तो क्या
बस दे दो दर्जा
कैबिनेट मंत्री या राज्य मंत्री का
और कुछ न हो तो
दे दो बस संतरी का
पढ़े लिखे तो हैं नही
जो करेंगे नौकरी
छेड़खानी करेंगे जरुर
जो मिल जाए कोई छोकरी
ऐसे ही लोग
बनते हैं भईया
आजकल नेता
झक्क सफेद कुर्ता
और सर पर फेंटा


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

मुझे आज भी याद है ..जब मैंने खुद ये ठान लिया था...सोच लिया था कि.....जिंदगी जीने के लिए अगर ढंग की नौकरी नहीं मिली तो पत्रकारिता करुंगा .....शायद यही वजह है कि मैं आज पत्रकारिता में हूं....लेकिन कभी कभार जब सोचने बैठता हूं तो लगता है कि मेरा तब का ये फैसला आज के परिप्रक्ष्य में गलत निकला....आज की पत्रकारिता में एक पत्रकार ही दूसरे का शोषण करता है.....करना चाहता है...करते हुए देखता है...कुछ बोलता नहीं...मुक स्वीकृति देता रहता है...औक कभी कभी विरोध करने पर विरोध करने वाले को दंड भी देता है...ये अलग बात है कि ऐसा वो किसी मजबूरी में करता है....लेकिन तब वो ये भूल जाता है वो भी उसी बिरादरी का सदस्य है...उसी परिवार का हिस्सा है.....जिसे पत्रकार कहते हैं...आजादी के पहले की पत्रकारिता मैंने देखी नहीं,सुनी नहीं ...बस पढ़ा भर हूं...आजादी के बाद की पत्रकारिता भी मैंने सुनी और पढ़ी है....लेकिन अस्सी के दशक के बाद मैंने जो कुछ भी पत्रकारिता के बारे में सुना...पढ़ा....उसे महसूस कर उसे अपनी जिंदगी जीने का लक्ष्य बना लिया....इसके कई कारण हैं....कुछ हमने महसूस किए.....कुछ आपने किए होंगे.....मैंने जो महसूस किया...मैं बता रहा हूं....और चाहता हूं कि आप अपने एहसास को भी जरुर रखें....ताकि लोग समझें...जानें और सिर्फ प्रबुद्ध वर्ग में शामिल होने के लिए पत्रकारिता करने की गुस्ताख़ी न करें......
मैं मानता हूं कि आज का पत्रकार बड़े पैसेवालों की गुलामी कर रहा है....बंधुआ मजदूर बनकर काम करता है....शोषित है पर मुंह नहीं खोलता...इस डर से कि नौकरी चली गई...तो घर कैसे चलेगा...दो जून की रोटी कैसे नसीब होगी....क्योंकि इस पेशे को उसने खुद अपनी मर्जी से चुना है......बस्स इस फिराक़ में रहता है कि इससे बेहतर नौकरी मिल जाए जिससे फिर एक-दो साल मजे में गुजर जाए......
दुनिया जितनी देखी...जितनी सुनी.......जितनी महसूस की...उसके अनुसार पत्रकारिता के बड़े ओहदे पर बैठा पत्रकार ही अपने से छोटे पत्रकार चूसता है.....गाली देता है....शोषण करता है...और कभी कभी छोटी - बड़ी गलतियों को लेकर उसकी नौकरी भी छीन लेता है.......क्योंकि वो भी बाध्य होता है...किसी धन्ना सेठ के हाथों....मजबूर होता है...क्योंकि उसका भी घर परिवार है....उसने भी अपने दायरे बढ़ा रखे हैं...खर्चे बढ़ा रखे हैं ....ऐसा न करने पर उसका खुद का अस्तित्व संकट में होता है...और खुद का अस्तित्व बचाने के लिए वो दूसरों का अस्तित्व मिटा देता है.......आपने भी महसूस किया होगा.....कर रहे होंगे......ऐसा अक्सर होता है.....
पत्रकार बनने के लिए समाज की समस्याओं को समझना, उसे महसूस करना , उससे जुड़ाव का अनुभव करना जरुरी है.....जरुरी होता है....क्योंकि जबतक आप जुड़ेंगे नहीं तबतक आपकी लेखनी आगे नहीं बढ़ेगी.....समाज के दूसरे वर्गों के लोगों के शोषण पर संपादकीय लिखना,विश्लेषण करना सहज भी है और सरल भी.....लेकिन अपने लोगों का शोषण देखना उतना ही कष्टकर है दुखदायी होता है.....लेकिन आज के दौर में हर पत्रकार इसे भी सहता है.....झेलता है....ये अलग बात है कि अब पत्रकारों के दो वर्ग हो गए हैं...एक वो जिनकी आमदनी लाखों में या लाख के करीब है......और दूसरे वो जो आज भी हजारों रुपया कमाने के लिए बरसात में आंधी पानी,गर्मी में लू के थपेड़े और जाड़े में हाड़ कंपा देने वाली ठंढी हवाओं को झेलते हैं.....इस मकसद के साथ नहीं कि उनका काम समाज के लिए काफी महत्वपूर्ण है बल्कि इस मकसद के साथ कि नहीं किया तो ऊपर बैठे लोग उनकी बाट लगा देंगे........उनकी नौकरी ख़तरे में पड़ जाएगी.......और फिर परिवार कैसे चलेगा........
अब पत्रकारिता आंदोलन नहीं.....पत्रकारिता मिशन नहीं......दूसरे हर प्रोफेशन की तरह एक व्यवसाय बन चुका है...पूरी तरह...कुछ लोग भले ही न मानें लेकिन ये कटू सत्य है.....सामाजिक जिम्मेदारी भूल चुका मीडिया का मकसद अब सिर्फ कमाई है.....कैसे भी.....हर कोई यही कर रहा है....क्या प्रिंट ...क्या इलेक्ट्रॉनिक....अब तो खबरें बिकती हैं......खबरें पैसे देने पर चलती हैं.......ख़बरें विज्ञापनदाताओं के खिलाफ होने पर नहीं चलतीं..........क्योंकि सबको पैसा चाहिए......ताकि बड़ी बड़ी मशीनें खरीदी जा सकें......बड़े बड़े प्रिंट ऑर्डर के लिए.......और जिसने पैसा लगाया है वो भी तो कमाने के लिए अपनी करोड़ों की संपत्ति लगा रखी है......यानी अब पत्रकारिता माने ख़बरों की फैक्ट्री.....जहां कच्ची खबरें पॉलिश की जाती हैं.....उनकी लेबलिंग और पैकेजिंग की जाती है......
यानी अब पत्रकारिता के मकसद बदल चुके हैं.....हर जगह पैसा घुस चुका है...गलत भी नहीं है.....आंदोलन से फैक्ट्री नहीं चलती ......पत्रकारिता की फैक्ट्री भी नहीं.....कमाना होगा तभी मजदूरों का भुगतान होगा...कमाई नहीं तो भुगतान ...पेमेन्ट की बात सोचना भी बेमानी है....सोचने की हिमाकत करना .....चलो अच्छा है सोच लिया..... आगे से मत सोचना.........क्योंकि जब अख़बार बिकता है.....तब पत्रकार क्यों नहीं...संपादक क्यों नहीं.....समाज में हो रहे बदलाव से वो अगल कैसे रहेगा........ये तो रहे मेरे शब्द....उम्मीद करता हूं ...आप अपने शब्द प्रतिक्रिया में सहेजेंगे......

इस बार लोकसभा चुनाव अगर किसी चीज के लिए ख़ासकर याद रखा जाएगा तो वो होगा...जूते......साहब इराकी पत्रकार ने एक जूता क्या फेंका.....लोगों को मानों एक रास्ता मिल गया.....अपना गुस्सा निकालने का.....ये अलग बात है कि इसमें पिस गए...शालीन...सभ्य राजनेता और गृहमंत्री पी चिदंबरम.....पढ़े लिखे अच्छे नेता माने जाते हैं.......हैं भी.....और उनपर जूते फेंकना निहायत गलत था.....लेकिन दिल्ली में पी चिदंबरम के बाद कुरुक्षेत्र में नवीन जिंदल पर भी फेंका गया जूता....दोनों में एक समानता है...दोनों कांग्रेस के नेता हैं..........और दोनों घटनाओं में जूता फेंकने वाला कोई अनपढ़ गंवार नहीं था...बल्कि पढ़ा लिखा...समझदार....बुद्धिजीवी था.......जिसे समाज की समस्याओं की समझ है...जिसे सामाजिक हालात ने उद्धेलित कर दिया जूता फेंकने के लिए......तो क्या आज राजनीति और राजनेताओं ने समाज को इस हाल पर लाकर खड़ा कर दिया है.......जहां अब बात जूतों से होगी.....उस जूते से.....जिसे असभ्यता की निशानी माना जाता है......और जूता फेंककर हम साबित क्या करना चाहते हैं.....पी चिदंबरम पर जूता का फेंका जाना गलत था...लेकिन जिन आरोपों को लेकर नवीन जिंदल पर जूता फेंकने की बात सामने आ रही है....अगर वो सही है...तो जूता फेंकना कतई गलत नहीं.....क्योंकि राजनीति में आना...चुनाव लड़ना....और चुनाव जीतना...एक शगल बन गया है....नेताओं का...धनाढ्यों का......और इसी शगल ने आम जनता को चुनाव में सक्रिय भागीदारी से अलग कर दिया है.......
लोग अक्सर कहते हैं नेताजी का वादा.....नेताजी का आश्वासन पूरा होने...या करने के लिए होता ही नहीं.....अगर ये सही है तो ऐसे नेता तो जूते के हकदार हैं ही.....करोड़ों रुपए लगाकर चुनाव जीतने की इच्छा रखने वाले ऐसे ही नेताओं को जूते मिलने ही चाहिए......यही नहीं....उन नेताओं को भी...जो जीतने के बाद अपने चुनाव क्षेत्र में आते ही नहीं....आते भी हैं तो आम वोटरों के साथ अछूत की तरह व्यवहार करते हैं.....और उन नेताओं को भी ....जो अपनी टेंट से एक पैसा खर्च करना तो दूर....क्षेत्र के विकास के लिए मिलने वाले पैसे का भी अधिकाधिक स्व विकास के लिए खर्च करते हैं....या खर्च करते ही नहीं.....और उन्हें भी जो नेतागिरी शौकिया करते हैं....चुनाव शौकिया लड़ते हैं.....जनता की कृपा से जीत जाते हैं......और फिर पांच साल के लिए उनकी याददाश्त ख़त्म हो जाती है.......मेरे हिसाब से ये उनके लिए भी मुफीद हो सकता है....जिन्हें जनता के फैसले का भरोसा नहीं होता.....जो किसी भी कीमत में चुनाव जीतने के लिए एक नहीं दो दो जगहों से अपना पर्चा भरते हैं....और अगर दोनों जगहों से जीत गए.....तो फिर अपने स्वार्थ के लिए एक जगह से इस्तीफा दे देते हैं.......
लोग कुछ भी कहें.....टीवी चैनल ...अखबारों के बुद्धिजीवी कुछ भी कहें लेकिन जूते में काफी दम है.....लेकिन ये जूता उन लोगों को भी मिलनी चाहिए.....जो जनता का अपमान करते हैं.....वोट न देने पर मतगणना के अगले दिन का सुरज नहीं देखने देने की धमकी देते हैं.......जनप्रतिनिधि कहलाते हैं....लेकिन खटमल की तरह जनता का लहू चूसते हैं......जनता की सुरक्षा जाए भाड़ में खुद आठ-आठ दस -दस मशीनगन वाले सुरक्षाकर्मियों को लेकर चलते हैं......
जूते को परंपरा नहीं बनानी चाहिए...लेकिन अगर मौका मिले तो चलाने से परहेज भी नहीं करना चाहिए....क्योंकि ये वो हथियार से जिससे गंदगी की सफाई भी हो सकती है.....तथाकथित नेता चुनाव लड़ने से पहले.....या जनता के बारे में भला-बुरा कहने से पहले सोचेंगे.....कि अगर अच्छा नहीं किया तो जूते पड़ेंगे........

कभी स्कूलों को शिक्षा का मंदिर कहा जाता था....लेकिन लगता है कभी कहा जाता होगा....आज हजार...दो हज़ार...तीन हजार रुपए मासिक शुल्क लेने वाले इन स्कूलों को मंदिर कहें तो कैसे....ये मंदिर लगते ही नहीं....क्योंकि मंदिर में वाग्देवी नहीं ...ज्ञान देने की शक्ति नहीं....ज्ञान पाने की उत्सुकता नहीं.....सुविधाओं का अंबार है.....एसी तक.......क्लासरुम से बस तक एसी.....बेमतलब..सिर्फ पैसे ऐंठने के चोंचले.....अभिभावक रुपी ग्राहकों को आकर्षित करने के तरीके.....उन अभिभावकों को जो रहते मिड्ल क्लास में हैं और दिखावा हाई क्लास की करते हैं....या करने की कोशिश करते हैं......भले खुद मां-बाप अंग्रेजी न बोल पाएं....लेकिन बेटे-बेटियों को अंग्रेजी सिखाने की ललक...उन्हें मजबूर कर देती है.....या वो कहीं न कहीं खुद को मजबूर समझने लगते हैं.....और जरा इन बेशर्म स्कूलों को देखिए.....एक स्कूल में दाखिला एक बार ही होता है....लेकिन जनाव ये मॉडर्न जमाना है....आधुनिक सोच है.....और आधुनिकतम ट्रेंड कह लीजिए.....हर साल एक ही स्कूल में बच्चे का नया दाखिला होता है.....वही जिसे एडमिशन कहते हैं.....और हर साल उसी स्कूल में नए एडमिशन की फीस होती है पांच से दस हज़ार रुपए......मां-बाप मजबूर हैं...नहीं देंगे तो जाऐंगे कहां......और सरकार और प्रशासन अंधी....क्योंकि सरकार और राजनीतिक दलों को चंदा मिलता है......प्रशासन को स्पेशल कोटे से दो-चार नए एडमिशन कराने की छूट.....पिसता कौन है...आम आदमी.........मिड्ल क्लास......इन स्कूल कहे जाने वाले शिक्षा की दुकानों पर.......जहां शिक्षा भी बिकती है....नोटबुक्स भी...किताबें भी....ड्रेस भी......
और अब बात सरकार की.....देश में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए ...हर बच्चा...हर नागरिक को शिक्षित करने के नाम पर बनती है करोड़ों की योजनाएं.....करोड़ों नहीं जनाब...अरबों रुपए की बात कीजिए.....लेकिन सरकार को इन धन्ना सेठ स्कूलों पर नज़र नहीं पड़ती...पड़ भी नहीं सकती.........क्योंकि नज़र है.....देखना चाहे तभी तो पड़ेगी.....अगर सरकार नज़र डाले तो इन कान्वेंट कहे जाने वाले स्कूलों का या तो अधिग्रहण कर ले.....या इनकी फीस की राशि तय कर दे कि बस्स ...इससे ज्यादा नहीं ले सकते...लोगे ...तो स्कूल पर से नियंत्रण खत्म......सरकार स्कूल का अधिग्रहण कर लेगी......लेकिन नहीं सरकार.....विधायक,सांसद.....और जैसा मैंने पहले कहा ये बड़े बड़े अफसरान.....इस ओर कोई तवज्जो ही नहीं देते.....चुनाव में वोट लेंगे....लेकिन इस ओर कोई बात नहीं करेंगे....अगर कर भी लिया.....तो कुछ करेंगे नहीं....क्योंकि इनका धंधा ही कुछ ऐसा है.......लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या इन अँग्रेजीदां कहे जाने वाले मॉडर्न स्कूलों की फीस देशभर में एक नहीं हो सकती.....शिक्षा ...संविधान के अनुसार मौलिक अधिकार है.....और इस मौलिक अधिकार से सरकार अपनी आंख कैसे मूंद सकती है........अगर मूंद रही है....या आंखें बंद रखना चाहती है तो फिर वो सरकार कैसी.....उसका तो नियंत्रण ही नहीं रहा......

एक विधायक लोकतंत्र के सबसे बड़े कहे जाने वाले इस पर्व के मौके पर खूनखराबा की धमकियां दे....वोट न देने पर मतदान के अगले दिन का सुरज न देखने की खुलेआम धमकी दे..... .वो भी चुनाव आयोग की सख़्ती के नाम पर....और फिर अधिकारी ये बयान दे कि उन्हें पूरे मामले की जानकारी नहीं है... मामले की जांच के बाद जो भी होगा...कार्रवाई की जाएगी.....लोकतंत्र का मजाक नहीं तो और क्या है....टीवी चैनलों पर उस विधायक की करतूत एक बार नहीं कई बार दिखाई गई.....करोड़ों लोगों (प्रजा) ने देखा....लेकिन आयोग जबतक नहीं देखे...अधिकारी जबतक नहीं देखें तबतक किसी पर कोई कार्रवाई कैसे कर सकते हैं....और वो जब देखना चाहेंगे तभी तो देखेंगे.....क्योंकि उन्हें उन्हीं राजनेताओं के बीच रहकर काम करना है.....उनके तलुए चाटने हैं.....चुनाव का मौसम है....चुनाव आयोग साथ है.....लेकिन चुनाव के बाद वही विधायक...वही एमपी उनके माई बाप होते हैं.....इसलिए बेवजह उनसे कोई दुश्मनी क्यों मोल ले.....जी हां...यही वजह है कि आज लोकतंत्र कमजोर हो रहा है.....और गुंडा तंत्र मजबूत....जब अधिकारी डरपोक हो जाएं...कायर हो जाएं तब वे सबसे पहले अपनी रक्षा की सोचता है.....जनता की कभी नहीं....कभी सोचता भी है तो बस दिखावे के लिए......यूपी के इस विधायक की करतूत.........तकरीबन सभी खबरिया चैनलों ने दिखाई.....एक एक शब्द लोकतंत्र यानी जम्हूरियत के कपड़े उतार रहा था...नंगा कर रहा था.....बलात्कार कर रहा था....लेकिन चुनाव आयोग को इससे क्या ...जम्हूरियत जाए भाड़ में.....तेल लेने....उसका काम तो बस चुनाव करवाना है.....आचार संहिता उल्लंघन के नाम पर नोटिस जारी करना है.....मामला दर्ज़ कराना है....अफसरों को चेतावनी देना है......और ये सब तभी तक हो रहा है जबतक जनता जागती नहीं.....उसका अहम जागता नहीं...जिस दिन जग जाएगा.....ये अफसर ...ये विधायक दुम दमाकर भागते दिखाई देंगे.......वर्ना मजाल कि एक अदना सा विधायक ...जो जनता की भलाई के लिए चुना जाता है ..खुलेआम एक मंच से जनता को ही धमकी दे....जान से मारने की धमकी.....और प्रशासन नपुंसक की तरह देखता रहे......ऐ दरोगा जी....जरा इधर आईए.....वो दारोगा भी क्या करे.....जब एसपी -डीएम सरीखे बड़े अफसर एमएलए-एमपी के पास अपने ट्रांसफर पोस्टिंग की जुगत लगाऐंगे तब बेचारके दारोगा की क्या औकात रह जाएगी.......वो तो दारोगा है इसलिए कि उसके वदन पर वर्दी है....टेंट में रिवॉल्वर है.....न हो तो एक (कोई संबोधन न देना ही बेहतर है) ......के बराबर है......तो ये है प्रजातंत्र की हकीकत...गांधी नेहरु के सपनों की हकीकत.....आप भी देखिए...हम भी देखेंगे....कि प्रशासन....चुनाव आयोग उस विधायक के खिलाफ क्या कार्रवाई करता है.....अव्वल तो सबूत ही नहीं मिलेगा.....मेरा दावा है मिलेगा ही नहीं .....अगर मिला भी तो तकनीकी पत्राचार...सवाल जवाब के चक्कर में ...नोटिस-जवाब ...फिर नोटिस ....यानी ले देकर ढाक के तीन पात.....नेताजी चकाचक...जनता....क्यों दुश्मनी ले जब सरकार उनकी ...प्रशासन उनका.....दारोगा उनका.....बंदूक उनकी....निशाना उनका.......सबूत जाए तेल लेने.......और लोकतंत्र ......किसी पोखरे में गिड़गिड़ा रहा है....

मौसम चुनाव का है....तो हमने सोचा क्यों न कुछ बाते चुनाव की हो जाय....आखिर हजारों करोड़ ऱुपए का खर्च जो है....सरकार बनने बिगड़ने की बात जो है.....चुनाव आयोग की घोषणा के बाद नेता मांद से निकलकर शेर की तरह दहाड़ने लगते हैं.....ये अलग बात है कि हर नेता शेर नहीं होता.....जो दहाड़ता नहीं वो सबकी खेल बिगाड़ने की सोचने लगता है.....ताकि उसकी अहमियत बरकार रहे.....लोग ये समझें कि वो भी नेता है....ये अलग बात है वो हकीकत में नेता नहीं होता...नेतागिरी से उसका दूर दूर का कोई वास्ता नहीं होता.....इसी तरह चुनाव की घोषणा के साथ शुरु हो जाती है मीडिया की बहस......बात अख़बार की करें या इलेक्ट्रॉनिक चैनल की......बात तो ऐसे करेंगे जैसे ये न हो तो मुद्दे न बनें.......किसी को पता ही न चले कि फलां लोकसभा सीट से कौन गंभीर उम्मीदवार है और कौन अगंभीर......अब अख़बारों को कागज काला करने की मजबूरी है तो इलेक्ट्रॉनिक चैनलों को अपना टाईम स्लॉट भरने की......हकीकत में सभी अपनी अपनी मजबूरी के मारे हैं...कुछ करना है तो चलो कुछ कर लें.....क्योंकि वोट डालने के लिए कतार में खड़ा होने वाला वोटर इनकी बातें गंभीरता से नहीं सुनता और जो इनकी बातें गंभीरता से सुनता है वो लंबी कतारों में खड़ा होकर वोट नहीं डालता......वोट का दिन यानी पिकनिक....सड़कें सूनी,गलियां सूनी....चलो क्रिकेट हो जाय...शाम तक जाकर देख आऐंगे कि बूथ पर कतार लंबी है या छोटी .......लंबी हुई तो घर आकर समोसे पकौड़े बनवाकर लुत्फ उठाया जाएगा.....छोटी हुई तो डेमोक्रेसी के नाम एक एहसान कर आऐंगे......गर्व से कहने के लिए कि हमने भी वोट दिया .......और खुदा न करे....एकाध गोलियां चलने की आवाज आए.....या बम धमाके का शोर सुनाई पड़ जाए...तो डेमोक्रेसी जाए भाड़ में......न तो मनमोहन सिंह हमारे मुहल्ले में आकर हमारी ख़बर लेंगे और न सोनिया को इतनी फूर्सत है ये जानने की ......अमित ने वोट क्यों नहीं दिया.....सुमित ने बीजेपी को क्यों दिया.....और रचित ने बीएसपी को .......वैसे भी चुनाव लड़ने के लिए किसी पढ़ाई लिखाई की जरुरत तो है नहीं.....फिर पढ़-लिखकर इस बात पर माथापच्ची क्यों करें कि कौन नेता अच्छा है.....कौन बुरा....किसकी सरकार अच्छी होगी....किसकी बुरी.....अब ये पढ़े लिखे मनमोहन ने ही क्या कर लिया.......कहते हैं विदेश से डिग्री लिए हुए हैं......कागज़ पर महंगाई कम हो रही है लेकिन जरा इनको कौन बताए कि ये गली का शनिचरा भी बता देगा कि महंगाई कितनी कम हुई है......इकोनॉमिक्स पढ़ने-पढ़ने के ढकोसले हैं बस्स......अब बीजेपी को ही ले लीजिए.......कुछ पता ही नहीं चलता कि इसके मुंह में राम है या बगल में.....कभी राम राम...तो कभी राम को राम.....एक रास्ते पर कोई चले तब तो पता चले......कुछ यही हाल बहन जी की भी है......शुरु में सत्ता सुख भोगा दल्त के नाम पर लेकिन जब लगा कि दलित बहुत दिन तक मूर्ख़ नहीं बन सकता तो सरक लिए सर्व धर्म समभाव की तरफ......अब इसके बाद किधर को जाऐंगी......एक बार हारने के बाद सोचेंगी......लाल झंडा वाले तो आजतक समझ नहीं पाए कि करें तो क्या करें.....ये अलग बात है कि एक दो राज्यों को छोड़ दें तो वोटरों ने उनसे लाल सलाम..... वो भी दूर से कर रखा है.......बाकी का हाल भी कुछ ऐसा ही है......कभी लालू को कच्चर दुश्मन मानने वाले रामविलास जब लालू से गले मिले तो ऐसा लगा कि जैसे पिछले जनम के बिछुड़ा भाई मिल गया हो.....लगे हाथ अमर अकबर एंतनी की तरह मुलायम भी साथ हो लिए.....इसीलिए आम आदमी चुनाव से दूर हो रहा है......भईया उस एलेक्शन में दूर दूर.....इस एलेक्शन में पास पास....क्यों...सब मिलकर दो पार्टी बना लो ......चुनाव का स्साला टंटा ही खत्म....पांच साल तुम लूटो ....पांच साल हम लूटें......क्योंकि लूटने के अलावा और तो कोई काम है नहीं ...सरकार मतलब लूट.....लूट सकै सो लूट.....राम राम.....

देखो फिर आया मौसम चुनाव का
सपने बांटेंगे नेता
देंगे आश्वासन
बड़े बड़े काम का
देखो फिर आया मौसम चुनाव का
पांच साल तक होश नहीं था
जनता याद नहीं आई थी
अब करेंगे सुबह नाश्ता
साथ खाना शाम का
देखो फिर आया मौसम चुनाव का
उड़न खटोले पर आऐंगे
साथ कई हीरो लाऐंगे
बड़े-बड़े दाम का
देखो फिर आया मौसम चुनाव का
धुआं उड़ेगा लाखों का
मंच सजेगा,गीत बजेंगे
वोट मांगेंगे लेकिन हराम का
देखो फिर आया मौसम चुनाव का