आंखे किसी से मिलने को
बेताब रहती है
किसी से कतराती हैं
किसी से मिलकर
मुस्कुराती हैं
तो किसी को देखकर
आता है गुस्सा उनको
आंखें
कभी रोती हैं
कभी हंसती हैं
कभी दोनों ही हालातों में
झर झर बहती हैं
आंखें
शरमाती भी है
कभी ढीठ बन जाती हैं
कभी - कभी
अपने किए पर पछताती हैं
आंखें
कभी फिसलती हैं
कभी झुक जाती है
आंखें सूख जाती हैं
कभी गीली हो जाती हैं
आंखे
कभी बोलती हैं
कभी खामोश रहती हैं
कभी
निःशब्द दिखती हैं
ये आंखे


बचपन के दिन भी भी क्या दिन थे....मस्ती के दिन...न कोई फिक्र...न कोई चिन्ता...चाहे जो हो जाय....स्कूल से घर लौटते ही जैसे तैसे....जो भी मिले खाओ और भागो खेलने के लिए.....पीचवीं...छठी कक्षा में हमलोग फुटबॉल भी खेलते थे और वो भी गांव से सटे एक बड़े से मैदान पर....जिसके सटे था कब्रिस्तान....और एक कोने पर सूर्यमंदिर और एक तालाब.....स्कूल से लौटते वक्त रास्ते में ही पूरी योजना बन जाती थी....कि आज मैदान में कौन सा खेल खेला जाएगा.....उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ था....रास्ते में तय हो गया था आज से छोटे मोटे खेल हमलोग नहीं खेलेंगे....होगा तो फुटबॉल ही.....और सभी अपने अपने घर से एक -एक रुपया लेकर आएगा....जो नहीं लाएगा...उसे खेलने नहीं देंगे.....घर आते ही सबसे पहले हाथ मुंह धोकर खाना खाया....और फिर बहाने तलाशने लगा एक रुपए के लिए....तब एक रुपया बड़ी चीज होती थी....खासकर गांव -देहात में....मैंने अपने छोटे से दिमाग के हर कोने की बत्ती जलाई...कि आखिर कहां से मिल सकता है एक रुपया.....पापा के पैंट में....मां के पर्स में...दादाजी के कुरते में....दादी के बक्से में.....बड़ी मां के...नहीं नहीं...उनके पैसे नहीं लूंगा.....सबसे पहले मैं सोने का बहाना कर मां के कमरे में पहुंचा...वहां पापा की पैंट नहीं दिखी....लगता है आज ही धोबन आई थी.....मां का पर्स का मिलना भी मुश्किल ही है.....अचानक एक ख्याल आया....मां की आदत जहां तहां रुपए पैसे रखने की है...खासकर आलमारी पर बिछे अखबारों के नीचे.....लेकिन डर थै कि कोई देख न ले......सोने का बहाना करने पर दादी आई...ये पूछने कि क्या हुआ रोज तो आते ही खेलने भाग जाता था....कहीं किसी की नजर तो नहीं लग गई....उन्हें क्या पता कि हमारी नजर कहां थी....खैर दादी गईं...और मैं फटाफट उठकर ढूंढने लगा एक रुपए........और मानो अंधे को मिल गई आंख.....एक क्या यहां तो कई रुपए रखे हैं...वो भी मुड़े तुड़े...लगता है मां भी रखकर भूल गई है.....मैंने झट से एक रुपया लिया और ये गया कि वो गया...हो गया रफूचक्कर...खेल के मैदान पर पहुंचने पर थोड़ी देर हो गई थी...पर मैं पहुंच गया....वहां पहले से कई लड़के पैसा जमा कर हिसाब किताब कर रहे थे.....कई रुपया नहीं लाने पर मुंह लटकाए खड़े थे....कुछ अगले दिन देने का वादा कर रहे थे...तभी एक की नजर मुझ पर पड़ी और छुटते ही उसने पूछा.....और तुम लाए क्या एक रुपया.....मैंने सीना तानकर कहा...और क्या नहीं लाया....ये ले एक रुपया......सभी ने हिसाब जोड़कर बताया...चलो इसे मिलाकर हो गए...उन्नीस रुपए.....अंधेरा घिरने लगा था....अभी तक पैसे ही नहीं जुट पाए...तो फुटबॉल कहां से आता....और जब फुटबॉल ही नहीं तो कोई क्या खेले.......फिर मंडली की बैठक हुई.....बैठक में तय हुआ कि मार्केट चलकर देखते हैं कि एक अच्छा सा फुटबॉल कितने में आएगा.....ये भी तय हुआ कि सभी मार्केट नहीं जाऐंगे....दो तीन लोग जाएं और अगर मिल जाता है तो फटाफट खरीद कर ले आएं...खेल न सही थोड़ा बहुत प्रैक्टिस ही हो जाए......राजू, अनिल और जवाहर तीनों बाजार चले गए.....बाकी मैदान में गप्पे हांकने लगे...शाम से रात हो गई....लेकिन चांदनी रात थी....रौशनी में रात में भी सबकुछ दुख रहा था......और हमलोग बैठे ही रहे.....टाइम का कोई अंदाजा नहीं था क्योंकि किसी के पास घड़ी नहीं थी...और न ही आज की तरह मोबाइल फोन.....खैर थोड़े और इंतजार के बाद तीनों आए तो उनके हाथ में फूटबॉल थी.....जिसे बाइस रुपए में खरीदा गया था....यानी तीन रुपए उधार पर....फुटबॉल आने की खुशी में हम सब ये भूल गए कि रात हो चुकी है......और फिर चांदनी रात में शुरु हो गई फुटबॉल की प्रैक्टिस...हम कितनी देर खेले ये तो पता नहीं...लेकिन अचानक हमलोगों को लगा कि बहुत देर हो चुकी है.....फिर धीरे धीरे हमलोग दबे पांव अपने अपने घर की ओर रवाना हो गए.....आगे बताने की जरुरत नहीं कि छोटे से गांव में जब कोई बच्चा खेल कूदकर रात के नौ बजे घर पहुंचता है तो उसके साथ कितना अच्छा (?) बर्ताव होता है...वही सबकुछ हमारे साथ हुआ.....मां बीचबचाव न करती तो शायद हमारा कचूमर बनना तय था.....
(शेष अगले अंक में ......)


मुझे आज भी अपने स्कूल के दिनों की याद बहुत आती है....क्योंकि उनदिनों आजादी थी....हंसने की...बोलने की...कुछ करने की.....खेलने की...खाने की...धमाचौकड़ी करने की.....यानी पूरी आजादी...आप जो चाहें कर सकते हैं.....मिडिल स्कूल के रास्ते में कुछ फलदार पेड़ भी थे...कुछ क्या साहब बहुत थे....एक दो की क्या बात करूं.....इमली के दस ज्यादा पेड़ रास्ते में मिलते थे....दो कदम्ब के......दो तीन आम के.....आम का तो एक पूरा बागीचा ही था रास्ते में....जिसमें फलों के दिन में..या यूं कहें कि मंजर आते ही पहरा शुरू हो जाता था.....किसी की कोई मजाल जो जरा एक पत्थर मार दे...लेकिन हमलोग भी कम नहीं थे....मजाल है पत्थर मारें और कोई पकड़ ले......उड़नछू तो ऐसे होते थे कि पीछा करने वाला औंधे मुंह गिरता था.....इसके अलावा नत्थू माली का बागीचा ...वो भी कई फलों के पेड़ वाला तो था ही.....यानी पूरे रास्ते में खाने पीने का पूरा इंतजाम प्रकृति ने कर रखा था....घर में किसी कारण अगर किसी ने खाने के लिए न पूछा हो तो कोई असर नहीं पड़ने वाला.....इसके अलावा हम आठ - दस दोस्तों की चांडाल चौकड़ी भी लाजबाव थी.....सभी घर से लाया अपना अपना टिफिन कभी अकेले नहीं खाते थे.....मिलजुलकर खाते थे.....और हमारे शानदार दोपहर की टिफिन में कौए...भी शामिल होते थे....बिना मांगे भोजन जो मिलता था.....थोड़ा खाओ....थोड़ा फेंको की तर्ज पर..खाने वाली मित्रमंडली जब जमा होती तो टिफिन का काम यूं चुटकी बजाते ही निकल जाता और जब टिफिन समाप्ति की घंटी बजती तो अपने अपने टिफिन का खाना फेंक सभी भागते कक्षा की ओर......क्यों कि कक्षा में पहुंचने में देर हुई...तो फिर हमारे हाथ पे होती थी मास्साब की छड़ी....वो भी खजूर वाली....जिसे हमी बदनसीबों से मंगाया भी जाता था.....
(शेष अगले अंक में---)


गांव से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर था हमारा मिडिल स्कूल....रास्ते में तीन पइनों से गुजरना पड़ता था....पानी कम होने पर पैर से छपाछप करते हुए...पानी ज्यादा होने पर,खासकर बरसात के दिनों में, तीन इंच के पाइप के सहारे इस पार से उस पार जाते थे....पैर जरा भी फिसला कि आप पानी के अंदर...बड़ा मजा आता था....पाइप पर चलने में भी और पैर फिसलता किसी को देखने में भी.....जिनके पास साइकिल होती थी...वो लंबी दूरी तय कर....मुख्य सड़क के सहारे स्कूल पहुंच जाते थे....रास्ते में उन्हें किसी बाधा का सामना नहीं करना पड़ता था....पर हम जैसों को तो पैदल चलने में ही मजा आता था....मजबूरी भी थी...शौक भी था...उत्साह भी.....बारिश का मौसम हो तो क्या कहने....भीग कर स्कूल पहुंचों और फिर भीगने का बहाना कर घर लौट आओ...आखिर भीगने पर ही तो कोई बीमार पड़ता है.....और ये बात मास्साब भी जानते थे और घरवाले भी......
मिडिल स्कूल में टिफिन में कैंटिन के नाम पर होती थी एक बुढ़िया अम्मा की टोकरी...जिसमें कई चीजें होती थी....पकौड़ी, घुघनी, बर्रा.....और भी बहुत कुछ....खाने के लिए प्लेट के नाम होती थी प्राकृतिक पेड़ों के पत्ते...जिसमें बुढ़ी अम्मा बेचती थी सबकुछ...बुढ़ी थी बेचारी...दादी अम्मां की तरह....बुढ़ापे में याद कितना रहता है सभी जानते हैं पर बच्चे उनकी अच्छी बुरी याददाश्त का खुब फायदा उठाते थे....वैसे अम्मा को याद बहुत रहता था...किसने कब क्या खाया...उस दिन उसने क्या बहाना किया था.....क्या पहने था उस दिन ...यहां तक कि उसके साथ और कौन आया था....सब कुछ...लेकिन जब बच्चे इंकार करते तो वो हार जाती थी....कभी कभीर कसमें खाने को कहती...जैसे भगवान कसम...इससे ज्यादा कभी नहीं....और बच्चे तो भगवान ऐसे खाते जैसे मूंगफली के दाने.....वैसे धीरे धीरे उसने उधार देना भी कम कर दिया....ये कहकर कि बेटा याद नहीं रहता...पैसे है तो खाओ....वर्ना न खाओ....हां पैसे नहीं हैं...और देने का इरादा भी नहीं तो खा लो...ऐसे ही लेकिन कभी कभार...बिरले ही किसी को देती थी.....आज भी उसके सामान को याद कर मुंह में पानी भर आता है.....बुढ़ी अम्मा की हाथों में मानो जादू था........
(शेष अगले अंक में....)


(टूकड़ों में यादों को संजोने से अच्छा है ...टूकड़ों को करीने से सजाया जाय.....यही सोचकर मैं अपने बचपन के वो दिन याद कर रहा हूं...जिसके बारे में ये सोचकर डर लगता है कि कहीं भूल न जाऊं........)

मिडिल स्कूल आज भी मेरी यादों में एक फिल्म की तरह चलने लगता है....एक बड़े से बगीचे के किनारे स्थित वो मिडिल स्कूल कई सुनहरी यादों का गवाह है...जिसे मैं पूरी कोशिश करता हूं नहीं भूलने की....करीब दस -बारह कमरों का था स्कूल....एक छोटा सा कमरा प्रिसिंपल साहब का.....उसे लगा एक अन्य कमरा...दूसरे सइक्षकों की बैठकी के लिए....और एक स्कूल में रहने वाले मास्टर साहब के लिए...जिनके साथ स्कूल का चपरासी भी रहता था.....सेवक के रुप में कह लीजिए...या सहायक के रुप में.....सोमवार से गुरुवार स्कूल सुबह दस से शाम चार तक चलती थी...लेकिन शुक्रवार को थोड़ी रियायत होती थी....टिफिन के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम होता था.....जिसमें कुर्सियों पर मास्साब लोग विराजमान होते थे....और नीचे ...पेड़ों के नीचे जमीन पर हम सभी छात्र.....कार्यक्रम का संचालन ज्यादातर एक ही छात्र करता था.....जो बालने में फक्कड़बाज था......और फिर बारी बारी से एक एक लड़के का पुकारा जाता था नाम....वो क्या सुनाएगा....कविता.....कहानी (छोटी), पहेली, चुटकुला.....या फिर कोई गीत या गाना सुनाएगा....ये वो ही तय करता था....जो बच्चे कुछ भी सुनाने से मना करता था....उसे मंच पर आकर ये कहना पड़ता था कि वो अगले शुक्रवार को जरुर कुछ न कुछ सुनाएगा......और फिर कार्यक्रम बोरिंग होने से पहले मास्साब कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा कर देते थे....ये कहकर...चलो आज इतना ही......बाकी अगले शुक्रवार को......और फिर होती थी...भागमभाग.......कौन पहले पहुंचता है अपने घर.....पईन के किनारे किनारे चलती थी बच्चों की रेल.....हुड़दंग भी होता था.....छीना झपटी भी.....मारपीट भी.....धक्कम पेल भी....यानी छुट्टी के बाद मनोरंजन की हर सुविधा मौजूद थी........वो भी क्या दिन थे......रास्ते में पड़ता था एक बगीचा......नत्थु भगत का बगीचा.....तकरीबन सभी फलों के पेड़ थे....हर मौसम में कोई न कोई फल मिलता था वहां लेकिन देखभाल करने वाला माली था नत्थु भगत....बेचारा बुढ़ा सा....माली अपनी बुढ़िया के साथ रहता था.....अमरुद लेना हो या फिर अनार.....चार पांच बच्चों ने मिलकर जमा किया पैसा.....और फिर शुरू हो जाता था मोलतोल....दस रुपए किलों की बात पांच पर रुकती थी....बाबा कहना पड़े या फिर दादा....कम तो करना ही पड़ेगा और फिर लेते थे कम...चुराते थे ज्यादा........बचपन के दिन थे.....अच्छे बुरे का फर्क नहीं मालूम था....चोरी अपराध है मालूम था पर मजा आता था....नत्थू बाबा को सताने में एक पाव खरीदा ...एक किलों गायब....चार पांच के लिए काफी होते थे.....खाने के बाद पछतावा होता था नत्थू बाबा को मूर्ख बनाने का.....अब तो लगता है वो भी जान बूझकर मूर्ख बनते थे....इसी बहाने हमलोगों के साथ उन्हें घंटा-आध घंटा रहने का मौका मिल जाता था......कितना भी सताते थे हमलोग पर....वो गुस्सा कम प्यार ज्यादा दिखाते थे....दिखता कम था..,.पर आवाज हम सभी का पहचानते थे.....और बाप का नाम तो जैसे ....उन्हें हम सभी के याद थे......प्यास लगी हो....चलो बाबा के पास....कुएं का ठंढा पानी मुफ्त...साथ में चोरी के मीठे फल....बोनस .....
(शेष, अगली बार.......)



फुर्सत के क्षणों में
जीता हूं बीते दिन
याद करता हूं
वो गुजरे पल
जो आज नहीं
बन चुके हैं कल
जिसमें नहीं था
वर्तमान सा कोलाहल
सबकुछ शांत था
न कोई चिंता थी
न फिक्र
सिर्फ वर्तमान की
बजती थी पायल
कभी किसी की
नहीं शिकायत
कभी किसी से
नहीं हुआ भय
जो चाहा
कर लिया
बस
साथ रहा मित्रदल
अच्छी बातों पर
हंसते थे
बुरा लगा तो
हो गए घायल
फुर्सत के क्षणों में
मैं करता हूं
याद गुजरे पल


इसमें कोई संदेह नहीं कि बिहार में पर्यटन संभावनाओं को आजादी के बाद से आजतक किसी सरकार ने तवज्जो नहीं दी....बदहाली कापर्याय बने बिहार में वो सबकुछ है जिससे किसी राज्य का उत्तरोत्तर विकास हो सकता है.....एक बड़ी जनसंख्या,उर्वर भूमि,पर्याप्त जल संसाधन ( अगर कोई उचित प्रबंधन न करे तो प्रकृति को दोष देना बेकार है), अत्यंत महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल....लेकिन गंदी राजनीति और राजनेताओं का शिकार बने इस राज्य में आजतक विकास का कोई कार्य हुआ ही नहीं....और जो कुछ हुआ भी वो सिर्फ कमीशनखोरी,भ्रष्टाचार के नाम पर.....बिहार में गया, बोधगया, वैशाली, राजगीर, पावापुरी, नालंदा, विक्रमशिला, पटना साहिब जैसे न जाने कितने पर्यटन स्थल हैं...जो अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के लिए महत्वपूर्ण हैं...लेकिन इन जगहों पर पर्टकों की सुविधाओं के नाम मुलभूत सुविधाओं का अभाव है....बावजूद इसके पर्यटक आते हैं...और आ रहे हैं.....जाहिर है अगर पर्यटन स्थलों के विकास की ओर सरकार पर्याप्त ध्यान दे...मुलभूत सुविधाओं का विकास करे.....कानून-व्यवस्था की स्थिति पर कोई समझौता न करे...बिहार ...विशव का पर्यटन विहार बन सकता है.....बोधगया की बात करें तो गया रेलवे स्टेशन अभी भी विकास की बाट जोह रहा है....स्टेशन पर उतरते ही पर्यटक एक हाथ अपने नाक पर रख लेता है.....ये शब्द काफी कुछ कहते हैं..... लोग गया को गंदगी का पर्याय मानने लगे हैं.....यहां न सरकार का चेहरा दिखता है....न नगर निगम का.....न प्रशासन का....रेलवे हो या स्थानीय.....लगता है सबकुछ खत्म हो चुका है.....बस शहर में लोग हैं...सिस्टम तो कब का मर चुका है.....कमोबेश यही स्थिति बिहार के हर जिले में स्थित पर्यटन स्थल की है....बावजूद इसके यहां आने वाले पर्यटकों की संख्या की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है....मंदी के इस दौर में भी जहां दूसरे राज्यों ...देशों में पर्यटकों की संख्या घट रही है या स्थिर है.....वहीं बिहार में पंद्रह फीसदी की रफ्तार से बढ़ी है.....जो इस बात का प्रतीक है कि अगर हम बिहार आने वाले पर्यटकों को पर्याप्त सुविधा मुहैय्या कराएं....तो राज्य में पर्यटन उद्योग राजस्व संग्रह में सरकार को काफी मदद कर सकता है......



उसके चेहरे पे कई चेहरे थे
एक चेहरे पे मुस्कुराहट थी
एक चेहरे पे जरा गुस्सा था
एक चेहरे पे खिलखिलाहट थी
एक चेहरे पे थी खामोशी सी
एक चेहरे पे थी दरिंदगी
एक चेहरा जरा उतरा सा था
एक चेहरे पे उड़ रही थी
हवाइयां जैसे
एक चेहरे पे थे सवाल कई
एक चेहरा निरुत्तर सा था
एक चेहरा तो तमतमाया था
एक पे तो किसी का साया था
एक चेहरा हसीन सा भी था
एक चेहरे पे बौखलाहट थी
एक पे ताजी हल्की आहट थी
एक पे इंतजार था लंबा
एक चेहरा तो निर्विकार सा था
एक चेहरे पे थी
बरसात कई भावों की
एक चेहरे पे अनगिनत चेहरे
ये कोई शख्स नहीं था भाई
अपने चेहरे को जरा देखो तो
रखके अपने सामने शीशा
गौर से देखो दिखेंगे चेहरे
सभी चेहरे हैं आपके चेहरे



वक्त के चेहरे पे
शिकन ये कैसी दिखने लगी
थम गया वक्त
या हो चला है अब बुढ़ा
झुर्रियां चेहरे की
बिस्तर की
सिलवटों सी लगती है
सोचता हूं
शायद उसे
आजतक पता ही नहीं
आज लंगड़ाता हुआ
वक्त जब सुबह मुझसे मिला
दर्द पर उसके चेहरे पर
जरा सी भी नहीं
गिर रहा था
कई जगह से खूं का कतरा
पर उसके चेहरे पे मुस्कान
कल की तरह थी
उसने मुझसे मिलाई हाथ
गर्मजोशी से
वो था
मुरझाया सा
हाथ मेरे ठंढे थे
उसके चेहरे पे था मुस्कान
मैं उदास सा था
वो था घायल
तड़प रहा था मैं
क्योंकि उम्मीद थी
उसे
वक्त बदलेगा
जरुर बदलेगा

ऑफिस के लिए बस स्टॉप पर खड़ा था.....काफी इंतजार के बाद बस आई...तो तेज कदमों से उसमें सवार हो गया....ये सोचकर कि मैं तेज चलूंगा तो शायद ऑफिस जल्दी पहुंच जाऊं...ये जानते हुए भी कि बस अपनी रफ्तार से चलती है...अपने हिसाब से स्टॉप पर रुकती है....और चलती है....वैशाली बस स्टॉप पर ढेर सारे छात्रों को देखकर कंडक्टर ने ड्राइवर को इसारा किया...तेज बढ़ते चलो....मत रोकना....लेकिन अचानक सिग्नल रेड हो गया और बस रुक गई....एक...दो ...तीन.....चार.....देखते ही देखते दस बारह बच्चे बस में चढ़ गए....खिसियाते हुए कंडक्टर ने कहा....गेट छोड़कर बीच में बढ़ते चलो.....मैंने देखा छात्रों में अधिकतर चौथी से सातवीं आठवीं कक्षा के छात्र थे.....दो बच्चे ...जो दिखने में चौथी या पाचवीं के छात्र लगते हैं....एक सीट से अड़कर खड़े हो गए....उस सीट पर एक जोड़ा बैठा हुआ था.....दिखने में नवविवाहित सा था....एक दूसरे से हल्की फुल्की बातचीत करते हुए सफर काट रहे थे...अचानक लड़के ने मोबाइल फोन निकाला.....और फिर कैमरे से लिए फोटोज लड़की को दिखाने लगा.....ये देखो...मेरे साथ कॉलेज में पढ़ती थी....ये तो मुझे लाइन भी देती थी....और इसने तो कई बार मेरे पास आने की कोशिश भी की थी.....एक के बाद ....फोटो दिखाते हुए उसका परिचय अपने अंदाज में करा रहा था.....लड़कियां भी ठीक ठाक लग रही थीं....सभी देख रहे थे...क्योंकि लड़के का दिखाने का अंदाज ही कुछ ऐसा था.....अचानक छोटे बच्चों में से एक की आवाज आई.....क्या माल है बे......सबकी नजरें उसकी ओर मुड़ गईं...मेरी भी....तुरंत खोड़ा पहला पुश्ता आ गया...बस रुकी...और वो छोटा बच्चा उतरकर चला गया....


आज फिर बारिश का आसार नजर आता हैं
हर तरफ हरा भरा संसार नजर आता है
बादल आसमां पे...हवा में ठंढक कहां से आई है
कहीं जरुर बरसी है फुहार,नजर आता है
शाम में घर से निकलो तो जरा बचके तुम
जमके बरसेंगे बादल, इसबार, नजर आता है
तन की परवाह न कर, न फिर ही मन की करना
क्योंकि ऐसा तो हर बार नजर आता है
बात मौसम की करें,किससे करें,कैसे करें
सबकी आंखों में इंतजार नजर आता है
आज फिर बारिश का आसार नजर आता हैं