(टूकड़ों में यादों को संजोने से अच्छा है ...टूकड़ों को करीने से सजाया जाय.....यही सोचकर मैं अपने बचपन के वो दिन याद कर रहा हूं...जिसके बारे में ये सोचकर डर लगता है कि कहीं भूल न जाऊं........)

मिडिल स्कूल आज भी मेरी यादों में एक फिल्म की तरह चलने लगता है....एक बड़े से बगीचे के किनारे स्थित वो मिडिल स्कूल कई सुनहरी यादों का गवाह है...जिसे मैं पूरी कोशिश करता हूं नहीं भूलने की....करीब दस -बारह कमरों का था स्कूल....एक छोटा सा कमरा प्रिसिंपल साहब का.....उसे लगा एक अन्य कमरा...दूसरे सइक्षकों की बैठकी के लिए....और एक स्कूल में रहने वाले मास्टर साहब के लिए...जिनके साथ स्कूल का चपरासी भी रहता था.....सेवक के रुप में कह लीजिए...या सहायक के रुप में.....सोमवार से गुरुवार स्कूल सुबह दस से शाम चार तक चलती थी...लेकिन शुक्रवार को थोड़ी रियायत होती थी....टिफिन के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम होता था.....जिसमें कुर्सियों पर मास्साब लोग विराजमान होते थे....और नीचे ...पेड़ों के नीचे जमीन पर हम सभी छात्र.....कार्यक्रम का संचालन ज्यादातर एक ही छात्र करता था.....जो बालने में फक्कड़बाज था......और फिर बारी बारी से एक एक लड़के का पुकारा जाता था नाम....वो क्या सुनाएगा....कविता.....कहानी (छोटी), पहेली, चुटकुला.....या फिर कोई गीत या गाना सुनाएगा....ये वो ही तय करता था....जो बच्चे कुछ भी सुनाने से मना करता था....उसे मंच पर आकर ये कहना पड़ता था कि वो अगले शुक्रवार को जरुर कुछ न कुछ सुनाएगा......और फिर कार्यक्रम बोरिंग होने से पहले मास्साब कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा कर देते थे....ये कहकर...चलो आज इतना ही......बाकी अगले शुक्रवार को......और फिर होती थी...भागमभाग.......कौन पहले पहुंचता है अपने घर.....पईन के किनारे किनारे चलती थी बच्चों की रेल.....हुड़दंग भी होता था.....छीना झपटी भी.....मारपीट भी.....धक्कम पेल भी....यानी छुट्टी के बाद मनोरंजन की हर सुविधा मौजूद थी........वो भी क्या दिन थे......रास्ते में पड़ता था एक बगीचा......नत्थु भगत का बगीचा.....तकरीबन सभी फलों के पेड़ थे....हर मौसम में कोई न कोई फल मिलता था वहां लेकिन देखभाल करने वाला माली था नत्थु भगत....बेचारा बुढ़ा सा....माली अपनी बुढ़िया के साथ रहता था.....अमरुद लेना हो या फिर अनार.....चार पांच बच्चों ने मिलकर जमा किया पैसा.....और फिर शुरू हो जाता था मोलतोल....दस रुपए किलों की बात पांच पर रुकती थी....बाबा कहना पड़े या फिर दादा....कम तो करना ही पड़ेगा और फिर लेते थे कम...चुराते थे ज्यादा........बचपन के दिन थे.....अच्छे बुरे का फर्क नहीं मालूम था....चोरी अपराध है मालूम था पर मजा आता था....नत्थू बाबा को सताने में एक पाव खरीदा ...एक किलों गायब....चार पांच के लिए काफी होते थे.....खाने के बाद पछतावा होता था नत्थू बाबा को मूर्ख बनाने का.....अब तो लगता है वो भी जान बूझकर मूर्ख बनते थे....इसी बहाने हमलोगों के साथ उन्हें घंटा-आध घंटा रहने का मौका मिल जाता था......कितना भी सताते थे हमलोग पर....वो गुस्सा कम प्यार ज्यादा दिखाते थे....दिखता कम था..,.पर आवाज हम सभी का पहचानते थे.....और बाप का नाम तो जैसे ....उन्हें हम सभी के याद थे......प्यास लगी हो....चलो बाबा के पास....कुएं का ठंढा पानी मुफ्त...साथ में चोरी के मीठे फल....बोनस .....
(शेष, अगली बार.......)

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