मुझे आज भी अपने स्कूल के दिनों की याद बहुत आती है....क्योंकि उनदिनों आजादी थी....हंसने की...बोलने की...कुछ करने की.....खेलने की...खाने की...धमाचौकड़ी करने की.....यानी पूरी आजादी...आप जो चाहें कर सकते हैं.....मिडिल स्कूल के रास्ते में कुछ फलदार पेड़ भी थे...कुछ क्या साहब बहुत थे....एक दो की क्या बात करूं.....इमली के दस ज्यादा पेड़ रास्ते में मिलते थे....दो कदम्ब के......दो तीन आम के.....आम का तो एक पूरा बागीचा ही था रास्ते में....जिसमें फलों के दिन में..या यूं कहें कि मंजर आते ही पहरा शुरू हो जाता था.....किसी की कोई मजाल जो जरा एक पत्थर मार दे...लेकिन हमलोग भी कम नहीं थे....मजाल है पत्थर मारें और कोई पकड़ ले......उड़नछू तो ऐसे होते थे कि पीछा करने वाला औंधे मुंह गिरता था.....इसके अलावा नत्थू माली का बागीचा ...वो भी कई फलों के पेड़ वाला तो था ही.....यानी पूरे रास्ते में खाने पीने का पूरा इंतजाम प्रकृति ने कर रखा था....घर में किसी कारण अगर किसी ने खाने के लिए न पूछा हो तो कोई असर नहीं पड़ने वाला.....इसके अलावा हम आठ - दस दोस्तों की चांडाल चौकड़ी भी लाजबाव थी.....सभी घर से लाया अपना अपना टिफिन कभी अकेले नहीं खाते थे.....मिलजुलकर खाते थे.....और हमारे शानदार दोपहर की टिफिन में कौए...भी शामिल होते थे....बिना मांगे भोजन जो मिलता था.....थोड़ा खाओ....थोड़ा फेंको की तर्ज पर..खाने वाली मित्रमंडली जब जमा होती तो टिफिन का काम यूं चुटकी बजाते ही निकल जाता और जब टिफिन समाप्ति की घंटी बजती तो अपने अपने टिफिन का खाना फेंक सभी भागते कक्षा की ओर......क्यों कि कक्षा में पहुंचने में देर हुई...तो फिर हमारे हाथ पे होती थी मास्साब की छड़ी....वो भी खजूर वाली....जिसे हमी बदनसीबों से मंगाया भी जाता था.....
(शेष अगले अंक में---)
Mohalla Live
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Mohalla Live
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गाली-मुक्त सिनेमा में आ पाएगा पूरा समाज?
Posted: 24 Jan 2015 12:35 AM PST
सिनेमा समाज की कहानी कहता है और...
10 वर्ष पहले
2 टिप्पणियाँ:
'यादों के झरोखे से' एक आइना है, खुद को देखने का और दूसरों को दिखाने का। इस आइने में वो सारी चीजें हैं, जिसे जिन्दगी कहते हैं। बचपन की यादों को संजो कर रखना और उसे खूबसूरती से सजा कर प्रस्तुत करना बड़ी बात है। क्षितिज जी, आपकी ये कला काफी प्रेरित करती है। अपने आलेख में आपने छोटे-छोट वाक्यों के जरिए जिस सुंदरता से यादों का उकेरा है, वो दिल को छू जाता है। सचमुच आपने मजबूर कर दिया कि हम भी अपने जड़ों की ओर लौट चले। इस कंक्रीट के जंगल में भावनाओं और संवेदनाओं का कोई महत्व नहीं है। काश! वो पुराने दिन फिर लौट आते। -अजय शेखर प्रकाश
आपके ब्लॉग को पढ़कर यादों की पगडंडी से उतरता हुआ बचपन की नर्म-मर्म यादों को दस्तक देना एक सुखद अहसास है। आपने मन को हरा करने का सारा मनोविज्ञान अपने ब्लॉग पर सहेज कर रखा है। हमारे यादों के चौकीदार आपको मेरा नमस्कार है। लिखते रहिये झरोखा। आपको पढ़कर मुझे लॉर्ड टेनिशन की कविता 'टियर आइडल टियर्सÓ की याद भी आई। ध्न्यवाद।
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