मेरे शहर की गलियां
खुबसुरत नहीं
पर अपनापन तो है
पतली ही सही पर
पर
सर्र से निकल जाती थी मेरी साईकिल
बिना किसी को छुए
गड्ढों का क्या है
आदत सी हो गई थी
हर चेहरा जाना पहचाना था

मेरे शहर की गलियां
याद आती हैं
आज भी
वो नालियों से निकला कचरा
जिससे बचकर निकलते थे लोग
अंधेरे में भी
जिसके बारे में
मुझे पता था
कहां है ठोकर
कहां है गड्ढा
कहां रखी है
ईंट का टुकड़ा

मेरे शहर की गलियां
खुबसुरत नहीं
लेकिन
मुझे पता था
रात में
कहां होता है अंधेरा
कहां होती है रोशनी
कहां बैठे होते हैं
चोर उचक्के
एक झरोखा था
रात-अधरात
जहां जाने में
डर नहीं लगता था
कभी भी कहीं भी
क्योंकि उन्हीं गलियों में
मेरा बचपन बीता
लड़कपन भी
फिर डर कैसा
फिर बड़ा हुआ

वक्त ने ली करवट
और मैं पहुंच गया
एक अंजान शहर में
जहां आज
पांच साल बाद भी
गलियां अपनी नहीं हुईं
लोग अब भी पराए हैं
पड़ोसियों की क्या कहें
हरदम नजरें झुकाए हैं
आज भी याद आती है

मेरे अपने उस शहर की गलियां
जहां हर कदम के फासले
आज भी अपने हैं
लोग आज भी जानते हैं
पहचानते हैं
मेरा चेहरा

1 टिप्पणियाँ:

अपना शहर अपना ही होता है.................................