कश्मीर तो फिर भी कश्मीर है...लेकिन इस बिहार को क्या हो गया...यहां तो लोग अब अमन चैन की बात करतने लगे हैं...लालू से छुटकारा मिल गया है लोगों को ...कहीं बिहार सुस्त तो नहीं हो गया....विकास की हल्की सी किरण देख सवेरा तो नहीं समझ लिया लोगों ने जबकि अभी तो मीलों दूर जाना है विकास की उस कल्पना के लिए जिसका ख्वाब देखा था डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने.....स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण ने......फिर इतनी सुस्ती....इतनी थकान कि वोट ही न डालेंगे....जम्हूरियत से ऐसा विकर्षण अच्छा नहीं समाज के लिए देश के लिए....सरकार के लिए...जनता के लिए.......वो भी तब जब लोगों को जागरुक बनाने के लिए...ये दिखाने के लिए कि भईया वोट देना कितना जरुरी है...(भले ही दिखावे के लिए हो).....मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद ट्रेन से चल पड़े हों वोट डालने ...इस तर्क के साथ कि हमारा मतदान केंद्र रेलवे स्टेशन के करीब पड़ता है.....ये अलग बात हो कि वो जिस सीट पर बैठे थे ...उसका शीशा यानी ग्लास में दरार थी...दरका हुआ था वो...ये दिखा रहा था कि लालू की रेल दरकी हुई है....सोच दरकी हुई है.....राजनीति दरक रही है.....कुनबा दरक रहा है.....टीवी चैनलों पर देखकर कोफ्त हुई कि बिहार के सिर्फ सैंतीस फीसदी लोगों ने चौथे चरण के मतदान में हिस्सा लिया....मीडिया के इतने सारे कार्यक्रमों ...प्रचारों के बावजूद कि बेटा पप्पु मत बनना.....माफ कीजिएगा...कोर्ट ने भले ही रोक लगा दी हो लेकिन पप्पु को पप्पु नहीं तो क्या कहेंगे......बिहार में वैशाली प्रजातंत्र की एक मिसाल मानी जाती है.....लेकिन उसी बिहार में लोगों को प्रजातंत्र से मोहभंग .....कहीं कोई बुरा सपना तो नहीं....या आने वाले किसी ख़तरे का संकेत तो नहीं.....कहीं हमारा लोकतंत्र कमजोर तो नहीं हो रहा.......
मुझे आज भी वो दिन याद है...जब हमारे गांव में लोकसभा चुनाव के लिए वोट डालने वालों की लंबी कतार लगती थी.....उस पुस्तकालय में सप्ताह भर पहले से लोगों का आना जाना...किताबें वाचने का काम बंद हो जाता था...लंबी बंदूकों वाले जवानों का डेरा हो जाता था वो पुस्तकालय...तब चुनाव में प्रचार भी खूब होता था...उम्मीदवारों की गाड़ियां....जिसमें आगे-पीछे लाऊडस्पीकर लगी होती थी....चीख-चीखकर लोगों की नींद हराम कर देती थीं.....गांड़ियों से धुएं के साथ कागज के पर्चे भी उड़ते थे......पूरे गांव के छोटे से बाज़ार में सरस्वती पूजा की तरह कागजों के बैनर पोस्टर लग जाते थे...सज जाता था हर इक घर-मकान-दुकान...जैसे कोई बड़ा त्योहार हो.....लेकिन आज न लाऊडस्पीकर की गूंज है.....न गाड़ियों का शोर...न रंगीन कागजों का प्रचार....बस्स नेताजी आ गए...यही क्या कम है......उड़नखटोले से नीचे तो कोई नेता आता भी नहीं.......नेता है भईया कोई आम आदमी तो नहीं......ये अलग बात है कि चुनाव के बाद जीत मिली तो भगवान हो जाता है और हार गया तो आम आदमी से बदतर.......

और तब वोट देने के लिए लंबी कतार लगती थी....मर्दों की अलग-महिलाओं की अलग.....तब चुनाव में गोली-बंदूक-बम के डर से लोग सुबह सवेरे वोट डालने जाते थे......क्योंकि आम तौर पर इनका इस्तेमाल दोपहर के बाद ही होता था...फिर भी लोग जाते थे....जान हथेली पर लेकर...लेकिन आज लोगों को क्या हो गया है....सुरक्षा के इतने पुख़्ता इंतजामात अगर तब होते तो शायद नब्बे फीसदी लोग वोट डालते...मेरे दादाजी भी....जो हमेशा ये कहते थे...जाओ घर पर भी कोई होना चाहिए....लुच्चे लफंगे बहुत घुमते हैं आज के दिन.....तब गाड़ी-घोड़ा क्या साईकिल तक चलाने की इज़ाजत नहीं होती थी पॉलिंग के दिन...फिर भी लोगों का हुजूम चलता था वोट डालने ...जैसे पिकनिक मनाने जा रहे हों.....लेकिन मुझे लगता है जैसे जैसे लोग आधुनिक हो रहे हैं..वैसे वैसे लापरवाह भी...आलसी भी...और अपने अधिकारों के प्रति उदासीन भी.....वोट के दिन मिली छुट्टी का मज़ा लेना चाहते हैं घर की एसी में रहकर....बच्चों के साथ टीवी देखर...फिल्में देखकर ...लेकिन ये लोग भूल जाते हैं कि वो खुद तो जम्हूरियत का अपमान कर ही रहे हैं...अपने बच्चों में भी उसी का बीज डाल रहे हैं......और ऐसे ही लोग सरकार पर तोहमत भी खूब लगाते हैं.....ये नहीं कर रही सरकार....वो नहीं कर रही सरकार.......सवाल ये है जब आप अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं कर रहे फिर दूसरों पर ऊंगलियां उठाने पहले सोच तो लीजिए......थक आप गए हैं....तोहमत जम्हूरियत पर लग रही है.....वोट आप नहीं डालते......कमजोर लोकतंत्र हो रहा है...क्योंकि आप हैं तो लोकतंत्र है.....आप ही से है लोकतंत्र...आपका ही है लोकतंत्र......

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