अब भी दिल को यकींन नहीं हो रहा है कि कुछ घंटों ( रात साढ़े बारह बजे के आसपास) पहले जिनसे बात हुई थी...वो शख्स अब हमसे बात करने के लिए मौजूद नहीं है...और जब मुझे यकीं नहीं हो रहा है तो भला भाभीजी (उनकी पत्नी) और उनके बच्चे को कैसे यकीन होगा....वो तो मेट्रो अस्पताल से लेकर अंतिम निवास तक यही रट लगाती रहीं...कि कोई दूसरे डॉक्टर को बुलाओ...देखो आंखें खुली है...हाथ मुलायम है....लेकिन सच कड़वा ही नहीं होता....कठोर होता है...इतना कठोर कि उसके सामने कड़ी से कड़ी वस्तु...व्यक्ति की कोई अहमियत नहीं .....

सोया ही था कि मेरे एक मित्र का फोन आया.....कि एक अत्यंत बुरी खबर दे रहा हूं.....सुनकर थोड़ी देर के लिए सोचने समझने की शक्ति नहीं रही.....लगा...नहीं ये खबर झूठी है......ये मोबाईल फोन झूठा है......आनन फानन में दो अन्य मित्रों के साथ जब मेट्रो अस्पताल पहुंचा तो लोगों की भीड़ लगी थी....अंदर गया...तो दिल रोने लगा...आंखों से आंसू बहने लगे.....जिससे कल तक सुबह शाम बात होती थी ...वो शख्स चिरनिद्रा में सोया पड़ा था......और भाभी जी उनसे लिपटकर कहे जा रहीं थीं...नहीं गुड्डू तुम्हें कुछ नहीं हो सकता.....कुछ नहीं.....ये चीटिंग है यार.....बीमार मैं रहती हूं......और तुम हम सबको छोड़कर जाने की सोच भी कैसे सकते हो......तुम्हारे बिना मैं भला कैसे जी सकूंगी.......इन सबके बीच मैं वहां किंकर्तव्यविमूढ़ सिर्फ उन दोनों को निहारता रहा......सोचता रहा कि जवानी की दहलीज लांघने के बाद पति पत्नी को एक दूसरे को वास्तविक जरुरत होती है....और ऐसे में अगर कोई एक दूसरे से सदा सदा के लिए दूर हो जाए..तो ये नाइंसाफी है.....ईश्वर की....वक्त की.....

नवंबर 2003 में ईटीवी ज्वायन करने के बाद से अशोक जी से मित्रता हुई.....और उनके वीओआई आने के बाद दोस्ती और बढ़ गई...हर रोज एक दो बार बात करने का सिलसिला चलता रहा ......जहां तक मैंने उन्हें जाना....वो एक संतुलित, शांतचित्त व्यक्ति थे...जो अपनी खुशी,निराशा,तनाव के भावों को आसानी से छुपा जाते थे.....तनाव और निराशा के क्षणों में ...छोड़ो यार...जो भी होगा...देखा जाएगा......अक्सर कहते थे......न ऊधो का लेना...न माधो का देना....उनका धर्म था...किसी ने उनके साथ बुरा किया ...चलो कोई बात नहीं.....किसी ने कुछ कह दिया.....छोड़ो...उसके बारे में क्या कहना......ऐसे शख्सियत थे.....अशोक जी......हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला जाने वाला शख्स देखते ही देखते खुद धुंआ हो गया.....और हम सब के लिए बन गया एक मिसाल.....दे गया एक सीख.....चुपचाप काम करने का...कियी का दिल नहीं दुखाने का......बता गया कि ये दुनिया चंद रोज का ठिकाना है...दोस्ती सबसे करो...इस तरह कि दुश्मनी की गुंजाईश ही न रहे.......




सूर्य की

पहली किरण की तरह

होती है

उम्मीद

मधुर

प्यारा सा

संगीत की तरह

होती है

उम्मीद

पतझड़ के बाद

पेड़ों पर आए

नए कोमल

पत्तों की तरह

होती है उम्मीद

फूल नहीं

कलियों की तरह

होती है उम्मीद

अंडे से बाहर

निकले चूजे की तरह

होती है उम्मीद

एक बेहद

नाजुक

डोर की तरह

होती है उम्मीद


ये महज इत्तेफाक है या कुछ और लेकिन मेरे स्कूल के दिनों की यादें मेरे मानस पटल पर पूरी तरह अंकित है...याद करने पर एक एक घटना फिल्म की तरह बस्स शुरू हो जाती है जैसे मैं किसी थियेटर में बैठा हूं....मेरे मध्य विद्यालय में एक मास्टर साहब थे...नाम था रोहण प्रसाद....मास्टर साहब का कहना ही क्या...जो भी विषय में शिक्षक मौजूद न हों...उन्हें भेज दीजिए पढ़ाकर आ जाऐंगे....पढ़ाते भी थे बच्चों को...आज याद करता हूं तो लगता है उस तरह तो कोई भी पढ़ा लेगा लेकिन तब वो हमारे गुरुजी थे.....और हम सब उनके छात्र....मैं उनके यहां ट्यूशन पढ़ने जाता था....सिर्फ इसलिए कि उनका घर हमारे घर से नजदीक था.....और हमारे पिताजी से उनके अच्छे संबंध थे....लेकिन इनके बारे में बात अगली बार......उससे बड़ा एक प्रसंग याद आ गया है ..मैं चाहता हूं कि पहले उसे शब्दों में पिरो लूं......उस दिन विज्ञान विषय की अर्द्ध वार्षिक परीक्षा की कॉपी क्लास में दिखाई जानी थी..सभी बच्चे खुश थे....उम्मीद लगा रहे थे कि किसे कितना नंबर मिलेगा......टिफिन के बाद विज्ञान का पीरियड था.....सभी सेक्शन के बच्चों के साथ स्कूल के किनारके बने नए हॉलनुमा क्लास में बच्चे बुलाए गए....मैं भी चुपचाप बैठा था...कम नंबर की आशंका से मैं भी भयभीत था दूसरे बच्चों की तरह...पढ़ने में ज्यादा तेज न था...पर ज्यादा मद्धम भी नहीं था.....हमारे विज्ञान के शिक्षक शिवकिशोर जी दरवाजे पर कॉपी का बंडल लेकर खड़े थे.....क्लास में मच रहा हंगामा अनायास थम गया.....सन्नाटा ऐसा जैसे कोई सरसराहट भी हो तो सुनाई पड़ जाय...उनके पीछे स्कूल का चपरासी खजूर की कई छड़ियों के साथ....हम बच्चों को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था....कि आखिर माजरा क्या है.....मास्साब आकर सबसे आगे लगा कुर्सी पर बैठ गए.....और फिर शुरू हुआ बारी बारी से एक एक लड़के का रौल नंबर का पुकारा जाना....सबको कॉपियां मिल गई...पर मेरी बारी नहीं आई....मेरे दिल की धड़कनें तब कितनी बढ़ गई होगी...इसका अंदाजा आप पाठक लगा सकते हैं......मुझे काटो तो खून नहीं.....मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे मेरे पांव के नीचे धरती है ही नहीं.....कांपने लगे थे मेरे पांव......आखिर मेरा रौल नेबर क्यों नहीं पुकारा गया.....मैं उत्सुकता बस मास्साब को देख रहा था....कुछ मेरे साथी मुझसे पूछ रहे थे....क्या हुआ तुमने कॉपी जमा तो कराई थी....
आखिरकार मास्साब ने मेरा नाम पुकारा...रौल नंबर नहीं.....मैं खड़ा हो गया...फिर उन्होंने मुझे आगे आने को कहा......मैं डरते डरते आगे बढ़ रहा था जैसे मुझसे कोई अपराघ हो गया हो....मास्साब के पास पहुंचकर मैं सर झुकाकर खड़ा हो गया.....मैंने तिरछी नजर से देखा मेरी कॉपी वहां पड़ी थी......मास्टर साहब ने कड़क स्वर में पूछा.....तुम्हारी कॉपी किसने लिखी है?
सर....मैंने खुद लिखी है......डरते हुए मैंने जवाब दिया......
वेवकूफ समझते हो.....एक पाचवीं कक्षा का छात्र किस तरह लिख सकता है...मुझे पता है.....ज्यादा चालाक बनने की कोशिश मत करो....समझे.....अभी पता चल जाएगा.....कि तुम कितने शातिर हो.....
मास्साब की आवाज में इतनी तल्खी थी कि मिडिल स्कूल में पढ़ने वाला एक बदमाश बच्चा भी कांपने लगे...और मैं तो बदमाश से एक पायदान नीचे था....लोगों की नजर में ....
फिर मास्साब की आवाज गूंजी.......हाथ निकालो
मैंने देखा उनके हाथ में खजूर की लंबी सी छड़ी थी....मेरे हाथ थरथरा रहे थे.....बिना पिटाई लगे मेरी आंखों से आंसू गिरने लगे.........
आवाज फिर कड़की.....मैंने कहा हाथ निकालो.........इस बार आवाज कुछ ज्यादा तेज थी......मैंने धीरे धीरे हाथ निकालना शुरू कर दिया......तभी रोहण मास्साब की आवाज सुनाई दी.....अरे शिवकिशोर जी....क्या हुआ?
अरे स्साब .....आजकल के बच्चे अब बच्चे नहीं रहे....वार्षिक परीक्षा में नकल की बात सुनी है पर छमाही परीक्षा में पूरी की पूरी कॉपी किसी और से लिखवाने का ये मामला तो हद है .....ये देखने में भले ही भोला भाला लग रहा हो पर है शातिर....पता नहीं किससे लिखवा लिया पूरी कॉपी....ये देखिए........
अब मेरी समझ में सारी बात आ गई.....मुझे बड़ों की तरह धसीटकर लिखने की आदत थी...और इसी कारण मुझे आज अपराधी की तरह खड़ा होना पड़ा....आखिर रोहण मास्साब ने मेरी पूरी कॉपी देखी और फिर कहा कि शिवकिशोर जी....इस बच्चे को आप भी पढ़ाते हैं और मैं भी.....ये इसकी खुद की लिखावट है.....अगर आपको यकीन न हो तो अभी लिखवाकर देख लीजिए......मुझे थोड़ी राहत मिलती दिखाई देने लगी....फिर मुझे मेरी की कॉपी में एक वाक्य लिखने को कहा गया.....जो मैंने लिख दिया....इसके बाद शिवकिशेर सर ने कहा...बच्चे हो....बच्चों की तरह लिखो....बड़ों की तरह नहीं....अभी रोहण जी नहीं होते तो तुम्हारी क्या दुर्गति होती....इसका तुम अंदाजा भी नहीं लगा सकते हो......जाओ...अपनी जगह पर बैठो.....राहत के साथ मैं तेज कदमों के साथ अपनी सीट पर जाकर बैठ गया.....आज मुझे रोहण सर ...भगवान सदृश दिख रहे थे....जो अचानकर ही प्रगट हो गए और मेरी जान बच गई..........




लोग कुछ भी कहें
पर इतना यकीं है मुझको
जो भी होता है
बेहतरी के लिए होता है
शुरू में भले ही लगे
बुरा हो रहा है बहुत
लेकिन
सच तो ये भी है
कल किसने देखा है
कल में होती है
ढेरों संभावनाएं
कुछ लोगों को
नजर आती हैं मगर
सिर्फ आशंकाएं
बदलाव
विकास को भी तो कहते हैं
कल के गर्भ में
आज पनपता है
बढ़ता है
और
आने वाले कल से है़
मुझे काफी उम्मीदें




आंखे किसी से मिलने को
बेताब रहती है
किसी से कतराती हैं
किसी से मिलकर
मुस्कुराती हैं
तो किसी को देखकर
आता है गुस्सा उनको
आंखें
कभी रोती हैं
कभी हंसती हैं
कभी दोनों ही हालातों में
झर झर बहती हैं
आंखें
शरमाती भी है
कभी ढीठ बन जाती हैं
कभी - कभी
अपने किए पर पछताती हैं
आंखें
कभी फिसलती हैं
कभी झुक जाती है
आंखें सूख जाती हैं
कभी गीली हो जाती हैं
आंखे
कभी बोलती हैं
कभी खामोश रहती हैं
कभी
निःशब्द दिखती हैं
ये आंखे


बचपन के दिन भी भी क्या दिन थे....मस्ती के दिन...न कोई फिक्र...न कोई चिन्ता...चाहे जो हो जाय....स्कूल से घर लौटते ही जैसे तैसे....जो भी मिले खाओ और भागो खेलने के लिए.....पीचवीं...छठी कक्षा में हमलोग फुटबॉल भी खेलते थे और वो भी गांव से सटे एक बड़े से मैदान पर....जिसके सटे था कब्रिस्तान....और एक कोने पर सूर्यमंदिर और एक तालाब.....स्कूल से लौटते वक्त रास्ते में ही पूरी योजना बन जाती थी....कि आज मैदान में कौन सा खेल खेला जाएगा.....उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ था....रास्ते में तय हो गया था आज से छोटे मोटे खेल हमलोग नहीं खेलेंगे....होगा तो फुटबॉल ही.....और सभी अपने अपने घर से एक -एक रुपया लेकर आएगा....जो नहीं लाएगा...उसे खेलने नहीं देंगे.....घर आते ही सबसे पहले हाथ मुंह धोकर खाना खाया....और फिर बहाने तलाशने लगा एक रुपए के लिए....तब एक रुपया बड़ी चीज होती थी....खासकर गांव -देहात में....मैंने अपने छोटे से दिमाग के हर कोने की बत्ती जलाई...कि आखिर कहां से मिल सकता है एक रुपया.....पापा के पैंट में....मां के पर्स में...दादाजी के कुरते में....दादी के बक्से में.....बड़ी मां के...नहीं नहीं...उनके पैसे नहीं लूंगा.....सबसे पहले मैं सोने का बहाना कर मां के कमरे में पहुंचा...वहां पापा की पैंट नहीं दिखी....लगता है आज ही धोबन आई थी.....मां का पर्स का मिलना भी मुश्किल ही है.....अचानक एक ख्याल आया....मां की आदत जहां तहां रुपए पैसे रखने की है...खासकर आलमारी पर बिछे अखबारों के नीचे.....लेकिन डर थै कि कोई देख न ले......सोने का बहाना करने पर दादी आई...ये पूछने कि क्या हुआ रोज तो आते ही खेलने भाग जाता था....कहीं किसी की नजर तो नहीं लग गई....उन्हें क्या पता कि हमारी नजर कहां थी....खैर दादी गईं...और मैं फटाफट उठकर ढूंढने लगा एक रुपए........और मानो अंधे को मिल गई आंख.....एक क्या यहां तो कई रुपए रखे हैं...वो भी मुड़े तुड़े...लगता है मां भी रखकर भूल गई है.....मैंने झट से एक रुपया लिया और ये गया कि वो गया...हो गया रफूचक्कर...खेल के मैदान पर पहुंचने पर थोड़ी देर हो गई थी...पर मैं पहुंच गया....वहां पहले से कई लड़के पैसा जमा कर हिसाब किताब कर रहे थे.....कई रुपया नहीं लाने पर मुंह लटकाए खड़े थे....कुछ अगले दिन देने का वादा कर रहे थे...तभी एक की नजर मुझ पर पड़ी और छुटते ही उसने पूछा.....और तुम लाए क्या एक रुपया.....मैंने सीना तानकर कहा...और क्या नहीं लाया....ये ले एक रुपया......सभी ने हिसाब जोड़कर बताया...चलो इसे मिलाकर हो गए...उन्नीस रुपए.....अंधेरा घिरने लगा था....अभी तक पैसे ही नहीं जुट पाए...तो फुटबॉल कहां से आता....और जब फुटबॉल ही नहीं तो कोई क्या खेले.......फिर मंडली की बैठक हुई.....बैठक में तय हुआ कि मार्केट चलकर देखते हैं कि एक अच्छा सा फुटबॉल कितने में आएगा.....ये भी तय हुआ कि सभी मार्केट नहीं जाऐंगे....दो तीन लोग जाएं और अगर मिल जाता है तो फटाफट खरीद कर ले आएं...खेल न सही थोड़ा बहुत प्रैक्टिस ही हो जाए......राजू, अनिल और जवाहर तीनों बाजार चले गए.....बाकी मैदान में गप्पे हांकने लगे...शाम से रात हो गई....लेकिन चांदनी रात थी....रौशनी में रात में भी सबकुछ दुख रहा था......और हमलोग बैठे ही रहे.....टाइम का कोई अंदाजा नहीं था क्योंकि किसी के पास घड़ी नहीं थी...और न ही आज की तरह मोबाइल फोन.....खैर थोड़े और इंतजार के बाद तीनों आए तो उनके हाथ में फूटबॉल थी.....जिसे बाइस रुपए में खरीदा गया था....यानी तीन रुपए उधार पर....फुटबॉल आने की खुशी में हम सब ये भूल गए कि रात हो चुकी है......और फिर चांदनी रात में शुरु हो गई फुटबॉल की प्रैक्टिस...हम कितनी देर खेले ये तो पता नहीं...लेकिन अचानक हमलोगों को लगा कि बहुत देर हो चुकी है.....फिर धीरे धीरे हमलोग दबे पांव अपने अपने घर की ओर रवाना हो गए.....आगे बताने की जरुरत नहीं कि छोटे से गांव में जब कोई बच्चा खेल कूदकर रात के नौ बजे घर पहुंचता है तो उसके साथ कितना अच्छा (?) बर्ताव होता है...वही सबकुछ हमारे साथ हुआ.....मां बीचबचाव न करती तो शायद हमारा कचूमर बनना तय था.....
(शेष अगले अंक में ......)


मुझे आज भी अपने स्कूल के दिनों की याद बहुत आती है....क्योंकि उनदिनों आजादी थी....हंसने की...बोलने की...कुछ करने की.....खेलने की...खाने की...धमाचौकड़ी करने की.....यानी पूरी आजादी...आप जो चाहें कर सकते हैं.....मिडिल स्कूल के रास्ते में कुछ फलदार पेड़ भी थे...कुछ क्या साहब बहुत थे....एक दो की क्या बात करूं.....इमली के दस ज्यादा पेड़ रास्ते में मिलते थे....दो कदम्ब के......दो तीन आम के.....आम का तो एक पूरा बागीचा ही था रास्ते में....जिसमें फलों के दिन में..या यूं कहें कि मंजर आते ही पहरा शुरू हो जाता था.....किसी की कोई मजाल जो जरा एक पत्थर मार दे...लेकिन हमलोग भी कम नहीं थे....मजाल है पत्थर मारें और कोई पकड़ ले......उड़नछू तो ऐसे होते थे कि पीछा करने वाला औंधे मुंह गिरता था.....इसके अलावा नत्थू माली का बागीचा ...वो भी कई फलों के पेड़ वाला तो था ही.....यानी पूरे रास्ते में खाने पीने का पूरा इंतजाम प्रकृति ने कर रखा था....घर में किसी कारण अगर किसी ने खाने के लिए न पूछा हो तो कोई असर नहीं पड़ने वाला.....इसके अलावा हम आठ - दस दोस्तों की चांडाल चौकड़ी भी लाजबाव थी.....सभी घर से लाया अपना अपना टिफिन कभी अकेले नहीं खाते थे.....मिलजुलकर खाते थे.....और हमारे शानदार दोपहर की टिफिन में कौए...भी शामिल होते थे....बिना मांगे भोजन जो मिलता था.....थोड़ा खाओ....थोड़ा फेंको की तर्ज पर..खाने वाली मित्रमंडली जब जमा होती तो टिफिन का काम यूं चुटकी बजाते ही निकल जाता और जब टिफिन समाप्ति की घंटी बजती तो अपने अपने टिफिन का खाना फेंक सभी भागते कक्षा की ओर......क्यों कि कक्षा में पहुंचने में देर हुई...तो फिर हमारे हाथ पे होती थी मास्साब की छड़ी....वो भी खजूर वाली....जिसे हमी बदनसीबों से मंगाया भी जाता था.....
(शेष अगले अंक में---)


गांव से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर था हमारा मिडिल स्कूल....रास्ते में तीन पइनों से गुजरना पड़ता था....पानी कम होने पर पैर से छपाछप करते हुए...पानी ज्यादा होने पर,खासकर बरसात के दिनों में, तीन इंच के पाइप के सहारे इस पार से उस पार जाते थे....पैर जरा भी फिसला कि आप पानी के अंदर...बड़ा मजा आता था....पाइप पर चलने में भी और पैर फिसलता किसी को देखने में भी.....जिनके पास साइकिल होती थी...वो लंबी दूरी तय कर....मुख्य सड़क के सहारे स्कूल पहुंच जाते थे....रास्ते में उन्हें किसी बाधा का सामना नहीं करना पड़ता था....पर हम जैसों को तो पैदल चलने में ही मजा आता था....मजबूरी भी थी...शौक भी था...उत्साह भी.....बारिश का मौसम हो तो क्या कहने....भीग कर स्कूल पहुंचों और फिर भीगने का बहाना कर घर लौट आओ...आखिर भीगने पर ही तो कोई बीमार पड़ता है.....और ये बात मास्साब भी जानते थे और घरवाले भी......
मिडिल स्कूल में टिफिन में कैंटिन के नाम पर होती थी एक बुढ़िया अम्मा की टोकरी...जिसमें कई चीजें होती थी....पकौड़ी, घुघनी, बर्रा.....और भी बहुत कुछ....खाने के लिए प्लेट के नाम होती थी प्राकृतिक पेड़ों के पत्ते...जिसमें बुढ़ी अम्मा बेचती थी सबकुछ...बुढ़ी थी बेचारी...दादी अम्मां की तरह....बुढ़ापे में याद कितना रहता है सभी जानते हैं पर बच्चे उनकी अच्छी बुरी याददाश्त का खुब फायदा उठाते थे....वैसे अम्मा को याद बहुत रहता था...किसने कब क्या खाया...उस दिन उसने क्या बहाना किया था.....क्या पहने था उस दिन ...यहां तक कि उसके साथ और कौन आया था....सब कुछ...लेकिन जब बच्चे इंकार करते तो वो हार जाती थी....कभी कभीर कसमें खाने को कहती...जैसे भगवान कसम...इससे ज्यादा कभी नहीं....और बच्चे तो भगवान ऐसे खाते जैसे मूंगफली के दाने.....वैसे धीरे धीरे उसने उधार देना भी कम कर दिया....ये कहकर कि बेटा याद नहीं रहता...पैसे है तो खाओ....वर्ना न खाओ....हां पैसे नहीं हैं...और देने का इरादा भी नहीं तो खा लो...ऐसे ही लेकिन कभी कभार...बिरले ही किसी को देती थी.....आज भी उसके सामान को याद कर मुंह में पानी भर आता है.....बुढ़ी अम्मा की हाथों में मानो जादू था........
(शेष अगले अंक में....)


(टूकड़ों में यादों को संजोने से अच्छा है ...टूकड़ों को करीने से सजाया जाय.....यही सोचकर मैं अपने बचपन के वो दिन याद कर रहा हूं...जिसके बारे में ये सोचकर डर लगता है कि कहीं भूल न जाऊं........)

मिडिल स्कूल आज भी मेरी यादों में एक फिल्म की तरह चलने लगता है....एक बड़े से बगीचे के किनारे स्थित वो मिडिल स्कूल कई सुनहरी यादों का गवाह है...जिसे मैं पूरी कोशिश करता हूं नहीं भूलने की....करीब दस -बारह कमरों का था स्कूल....एक छोटा सा कमरा प्रिसिंपल साहब का.....उसे लगा एक अन्य कमरा...दूसरे सइक्षकों की बैठकी के लिए....और एक स्कूल में रहने वाले मास्टर साहब के लिए...जिनके साथ स्कूल का चपरासी भी रहता था.....सेवक के रुप में कह लीजिए...या सहायक के रुप में.....सोमवार से गुरुवार स्कूल सुबह दस से शाम चार तक चलती थी...लेकिन शुक्रवार को थोड़ी रियायत होती थी....टिफिन के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम होता था.....जिसमें कुर्सियों पर मास्साब लोग विराजमान होते थे....और नीचे ...पेड़ों के नीचे जमीन पर हम सभी छात्र.....कार्यक्रम का संचालन ज्यादातर एक ही छात्र करता था.....जो बालने में फक्कड़बाज था......और फिर बारी बारी से एक एक लड़के का पुकारा जाता था नाम....वो क्या सुनाएगा....कविता.....कहानी (छोटी), पहेली, चुटकुला.....या फिर कोई गीत या गाना सुनाएगा....ये वो ही तय करता था....जो बच्चे कुछ भी सुनाने से मना करता था....उसे मंच पर आकर ये कहना पड़ता था कि वो अगले शुक्रवार को जरुर कुछ न कुछ सुनाएगा......और फिर कार्यक्रम बोरिंग होने से पहले मास्साब कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा कर देते थे....ये कहकर...चलो आज इतना ही......बाकी अगले शुक्रवार को......और फिर होती थी...भागमभाग.......कौन पहले पहुंचता है अपने घर.....पईन के किनारे किनारे चलती थी बच्चों की रेल.....हुड़दंग भी होता था.....छीना झपटी भी.....मारपीट भी.....धक्कम पेल भी....यानी छुट्टी के बाद मनोरंजन की हर सुविधा मौजूद थी........वो भी क्या दिन थे......रास्ते में पड़ता था एक बगीचा......नत्थु भगत का बगीचा.....तकरीबन सभी फलों के पेड़ थे....हर मौसम में कोई न कोई फल मिलता था वहां लेकिन देखभाल करने वाला माली था नत्थु भगत....बेचारा बुढ़ा सा....माली अपनी बुढ़िया के साथ रहता था.....अमरुद लेना हो या फिर अनार.....चार पांच बच्चों ने मिलकर जमा किया पैसा.....और फिर शुरू हो जाता था मोलतोल....दस रुपए किलों की बात पांच पर रुकती थी....बाबा कहना पड़े या फिर दादा....कम तो करना ही पड़ेगा और फिर लेते थे कम...चुराते थे ज्यादा........बचपन के दिन थे.....अच्छे बुरे का फर्क नहीं मालूम था....चोरी अपराध है मालूम था पर मजा आता था....नत्थू बाबा को सताने में एक पाव खरीदा ...एक किलों गायब....चार पांच के लिए काफी होते थे.....खाने के बाद पछतावा होता था नत्थू बाबा को मूर्ख बनाने का.....अब तो लगता है वो भी जान बूझकर मूर्ख बनते थे....इसी बहाने हमलोगों के साथ उन्हें घंटा-आध घंटा रहने का मौका मिल जाता था......कितना भी सताते थे हमलोग पर....वो गुस्सा कम प्यार ज्यादा दिखाते थे....दिखता कम था..,.पर आवाज हम सभी का पहचानते थे.....और बाप का नाम तो जैसे ....उन्हें हम सभी के याद थे......प्यास लगी हो....चलो बाबा के पास....कुएं का ठंढा पानी मुफ्त...साथ में चोरी के मीठे फल....बोनस .....
(शेष, अगली बार.......)



फुर्सत के क्षणों में
जीता हूं बीते दिन
याद करता हूं
वो गुजरे पल
जो आज नहीं
बन चुके हैं कल
जिसमें नहीं था
वर्तमान सा कोलाहल
सबकुछ शांत था
न कोई चिंता थी
न फिक्र
सिर्फ वर्तमान की
बजती थी पायल
कभी किसी की
नहीं शिकायत
कभी किसी से
नहीं हुआ भय
जो चाहा
कर लिया
बस
साथ रहा मित्रदल
अच्छी बातों पर
हंसते थे
बुरा लगा तो
हो गए घायल
फुर्सत के क्षणों में
मैं करता हूं
याद गुजरे पल


इसमें कोई संदेह नहीं कि बिहार में पर्यटन संभावनाओं को आजादी के बाद से आजतक किसी सरकार ने तवज्जो नहीं दी....बदहाली कापर्याय बने बिहार में वो सबकुछ है जिससे किसी राज्य का उत्तरोत्तर विकास हो सकता है.....एक बड़ी जनसंख्या,उर्वर भूमि,पर्याप्त जल संसाधन ( अगर कोई उचित प्रबंधन न करे तो प्रकृति को दोष देना बेकार है), अत्यंत महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल....लेकिन गंदी राजनीति और राजनेताओं का शिकार बने इस राज्य में आजतक विकास का कोई कार्य हुआ ही नहीं....और जो कुछ हुआ भी वो सिर्फ कमीशनखोरी,भ्रष्टाचार के नाम पर.....बिहार में गया, बोधगया, वैशाली, राजगीर, पावापुरी, नालंदा, विक्रमशिला, पटना साहिब जैसे न जाने कितने पर्यटन स्थल हैं...जो अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के लिए महत्वपूर्ण हैं...लेकिन इन जगहों पर पर्टकों की सुविधाओं के नाम मुलभूत सुविधाओं का अभाव है....बावजूद इसके पर्यटक आते हैं...और आ रहे हैं.....जाहिर है अगर पर्यटन स्थलों के विकास की ओर सरकार पर्याप्त ध्यान दे...मुलभूत सुविधाओं का विकास करे.....कानून-व्यवस्था की स्थिति पर कोई समझौता न करे...बिहार ...विशव का पर्यटन विहार बन सकता है.....बोधगया की बात करें तो गया रेलवे स्टेशन अभी भी विकास की बाट जोह रहा है....स्टेशन पर उतरते ही पर्यटक एक हाथ अपने नाक पर रख लेता है.....ये शब्द काफी कुछ कहते हैं..... लोग गया को गंदगी का पर्याय मानने लगे हैं.....यहां न सरकार का चेहरा दिखता है....न नगर निगम का.....न प्रशासन का....रेलवे हो या स्थानीय.....लगता है सबकुछ खत्म हो चुका है.....बस शहर में लोग हैं...सिस्टम तो कब का मर चुका है.....कमोबेश यही स्थिति बिहार के हर जिले में स्थित पर्यटन स्थल की है....बावजूद इसके यहां आने वाले पर्यटकों की संख्या की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है....मंदी के इस दौर में भी जहां दूसरे राज्यों ...देशों में पर्यटकों की संख्या घट रही है या स्थिर है.....वहीं बिहार में पंद्रह फीसदी की रफ्तार से बढ़ी है.....जो इस बात का प्रतीक है कि अगर हम बिहार आने वाले पर्यटकों को पर्याप्त सुविधा मुहैय्या कराएं....तो राज्य में पर्यटन उद्योग राजस्व संग्रह में सरकार को काफी मदद कर सकता है......



उसके चेहरे पे कई चेहरे थे
एक चेहरे पे मुस्कुराहट थी
एक चेहरे पे जरा गुस्सा था
एक चेहरे पे खिलखिलाहट थी
एक चेहरे पे थी खामोशी सी
एक चेहरे पे थी दरिंदगी
एक चेहरा जरा उतरा सा था
एक चेहरे पे उड़ रही थी
हवाइयां जैसे
एक चेहरे पे थे सवाल कई
एक चेहरा निरुत्तर सा था
एक चेहरा तो तमतमाया था
एक पे तो किसी का साया था
एक चेहरा हसीन सा भी था
एक चेहरे पे बौखलाहट थी
एक पे ताजी हल्की आहट थी
एक पे इंतजार था लंबा
एक चेहरा तो निर्विकार सा था
एक चेहरे पे थी
बरसात कई भावों की
एक चेहरे पे अनगिनत चेहरे
ये कोई शख्स नहीं था भाई
अपने चेहरे को जरा देखो तो
रखके अपने सामने शीशा
गौर से देखो दिखेंगे चेहरे
सभी चेहरे हैं आपके चेहरे



वक्त के चेहरे पे
शिकन ये कैसी दिखने लगी
थम गया वक्त
या हो चला है अब बुढ़ा
झुर्रियां चेहरे की
बिस्तर की
सिलवटों सी लगती है
सोचता हूं
शायद उसे
आजतक पता ही नहीं
आज लंगड़ाता हुआ
वक्त जब सुबह मुझसे मिला
दर्द पर उसके चेहरे पर
जरा सी भी नहीं
गिर रहा था
कई जगह से खूं का कतरा
पर उसके चेहरे पे मुस्कान
कल की तरह थी
उसने मुझसे मिलाई हाथ
गर्मजोशी से
वो था
मुरझाया सा
हाथ मेरे ठंढे थे
उसके चेहरे पे था मुस्कान
मैं उदास सा था
वो था घायल
तड़प रहा था मैं
क्योंकि उम्मीद थी
उसे
वक्त बदलेगा
जरुर बदलेगा

ऑफिस के लिए बस स्टॉप पर खड़ा था.....काफी इंतजार के बाद बस आई...तो तेज कदमों से उसमें सवार हो गया....ये सोचकर कि मैं तेज चलूंगा तो शायद ऑफिस जल्दी पहुंच जाऊं...ये जानते हुए भी कि बस अपनी रफ्तार से चलती है...अपने हिसाब से स्टॉप पर रुकती है....और चलती है....वैशाली बस स्टॉप पर ढेर सारे छात्रों को देखकर कंडक्टर ने ड्राइवर को इसारा किया...तेज बढ़ते चलो....मत रोकना....लेकिन अचानक सिग्नल रेड हो गया और बस रुक गई....एक...दो ...तीन.....चार.....देखते ही देखते दस बारह बच्चे बस में चढ़ गए....खिसियाते हुए कंडक्टर ने कहा....गेट छोड़कर बीच में बढ़ते चलो.....मैंने देखा छात्रों में अधिकतर चौथी से सातवीं आठवीं कक्षा के छात्र थे.....दो बच्चे ...जो दिखने में चौथी या पाचवीं के छात्र लगते हैं....एक सीट से अड़कर खड़े हो गए....उस सीट पर एक जोड़ा बैठा हुआ था.....दिखने में नवविवाहित सा था....एक दूसरे से हल्की फुल्की बातचीत करते हुए सफर काट रहे थे...अचानक लड़के ने मोबाइल फोन निकाला.....और फिर कैमरे से लिए फोटोज लड़की को दिखाने लगा.....ये देखो...मेरे साथ कॉलेज में पढ़ती थी....ये तो मुझे लाइन भी देती थी....और इसने तो कई बार मेरे पास आने की कोशिश भी की थी.....एक के बाद ....फोटो दिखाते हुए उसका परिचय अपने अंदाज में करा रहा था.....लड़कियां भी ठीक ठाक लग रही थीं....सभी देख रहे थे...क्योंकि लड़के का दिखाने का अंदाज ही कुछ ऐसा था.....अचानक छोटे बच्चों में से एक की आवाज आई.....क्या माल है बे......सबकी नजरें उसकी ओर मुड़ गईं...मेरी भी....तुरंत खोड़ा पहला पुश्ता आ गया...बस रुकी...और वो छोटा बच्चा उतरकर चला गया....


आज फिर बारिश का आसार नजर आता हैं
हर तरफ हरा भरा संसार नजर आता है
बादल आसमां पे...हवा में ठंढक कहां से आई है
कहीं जरुर बरसी है फुहार,नजर आता है
शाम में घर से निकलो तो जरा बचके तुम
जमके बरसेंगे बादल, इसबार, नजर आता है
तन की परवाह न कर, न फिर ही मन की करना
क्योंकि ऐसा तो हर बार नजर आता है
बात मौसम की करें,किससे करें,कैसे करें
सबकी आंखों में इंतजार नजर आता है
आज फिर बारिश का आसार नजर आता हैं



यूपी सरकार ने
बीस जिलों को कर दिया
सूखाग्रस्त घोषित

कोई लाख चिल्लाए
जो जिले घोषित नहीं हुए
वो सूखाग्रस्त नहीं हैं
क्योंकि सरकार
सच बोलती है
जो भी करती है
सोच समझ कर करती है
कोई किसान मरता है
तो उसकी गलती है
सरकार की नहीं
क्योंकि
ये तो
सरकार ही देखेगी
तय करेगी
कहां बारिश हुई
कहां सूखा पड़ा
कहां ज्यादा हैं
उसके वोट बैंक
कहां विपक्षी दलों के



झूठ की मशीन
सच भी पकड़ती है
सीरियल देखकर
उसने मुझसे कहा
तुम भी जाओ
इस सीरियल में
जिससे मैं जान पाऊं
तुम कितने सच हो
क्योंकि झूट पकड़ने की मशीन
मैं घर नहीं ला सकती
पता नहीं कितनी महंगी होगी
हर रोज कहते हो
बहुत प्यार करता हूं
कम से कम पता तो चलेगा
तुम सच में
प्यार करते हो
या यूं ही बस कहते हो

दिल से निकली
हंसी खनकती है
खोखली हंसी
में
छिपा होता है
एक सन्नाटा
पहचान मुश्किल नहीं
फिर भी लोग
अक्सर पहचान नहीं पाते


हंसने की बात पर
हंसी
झरने सी बहती है
बेबात
बहते पानी की तरह
पहचान मुश्किल नहीं
फिर भी लोग
अक्सर पहचान नहीं पाते

हल

किसान
कल भी चलाते थे हल
आज भी चला रहे हैं
क्योंकि
उनकी समस्याएं
हल
नहीं हुईं


कल

कल की तो
बात ही मत करो
क्योंकि
कल कभी आज
नहीं बनता
कल...
कल रहता है


जाने कहां गए वो दिन
खुली हवा में सांसे लेना
लंबा लंबा डग भरकर
लंबी सैर पे जाना
बातें करते करते
जाने कितने लोगों को
प्रणाम कहना
हालचाल पूछना
अनजाने चेहरे को देखकर
ताज्जूब करना

खेतों से चने के पौधे
उखाड़कर
खाना
गेहूं की बालियों से
खेलना...
उछालना
हवा में
और चलते रहना

पैरों से
रस्ते में पड़े
पत्थरों को
ठोकर मारना
और देखना
कितनी दूर गए
पत्थर

जाने कहां गए वो दिन

रिक्शे के पीछे लटकना
छुपकर
ट्रैक्टर को
दौड़कर पकड़ना
फिर कूद जाना
किसी की साईकिल के
पहिए से हवा निकाल देना
किसी की सीट गायब कर देना
किसी के सिर में च्यूंगम चिपकाना
किसी को पीछे से धप्पा मारना

जाने कहां गए वो दिन

बिना शोर किए सुबह सवेरे
निकल पड़ना
फुटबॉल- क्रिकेट खेलने
और दरवाजे को बस
धीरे से सटाकर चले जाना
बिना ये सोचे
कि कोई चोर
घुस सकता है
मेरे घर से
रात अंधेरे
सावन में
कनैल के
ढेर सारे फूल तोड़ना
और फिर सुनना
माली की गाली
सच्च...
कितनी खुशी होती थी
जाने कहां गए वो दिन

वो बगिया में
आधा किलो
अमरुद खरीदना
और फिर
चार किलो से अधिक
चुराना
क्योंकि
माली चाचा को दिखता कम था
जब तक चलता था पता
हम सब हो चुके होते थे
रफूचक्कर
छोटी सी बगिया में
धमाचौकड़ी मचाना
एक दौरे में
तहस नहस करना
जाने कहां गए वो दिन

बचपन के दिन
बेफिक्री के दिन
दिन सिर्फ वर्तमान के
जिसमें नहीं होती थी
भविष्य की चिंता
चिंतन तो था ही नहीं
जाने कहां गए वो दिन


वो पतली सी पगडंडी
जिसके किनारे बहती थी पईन
जिसमें पानी
तो बस बरसात में दिखती थी
दूसरे मौसमों में
पानी ऐसे बहती थी
जैसे किसी के घर के नाली का पानी

वो पतली सी पगडंडी
जिसके किनारे
न जाने कितने फलों के थे
पेड़
कदम्ब
बेर
आम
और अमरूद
खाते न अघाते थे
लोग
हम बच्चे भी
उन पगडंडियों ने
हमारा बचपन ही देखा था
जवानी शहरों ने देखी

वो पतली सी पगडंडी
जिसके किनारे होती थी
कंटीली झाड़ियां
निकलते थे जिससे
बचकर
लेकिन कई बार
झाड़ियों ने भी बचाया हमें था

जिसपर बरसात में
होती थी फिसलन
गिरते-फिसलते
बचते बचाते
घर पहुंच जाते

वो पतली सी पगडंडी

याद है
रहेगी
ताउम्र



वो भी क्या दिन थे
झड़ी लगती थी बरसात की
मुश्किल होता था घर से निकलना
दादी की डांट,दादा की झिड़की
पानी आ रहा है,बंद करो खिड़की
बंद हो जाता था
सड़कों पर जाना
घरों में घुटता था दम
सीलन भरी दीवारें
हर तरफ पानी ही पानी

कपड़े सूखते नहीं थे
हर दिन
अलग अलग कपड़े
पहनने को मिलते थे
कभी कभी नए भी
क्योंकि गीले कपड़ों की
लग जाती थी भरमार

वो भी क्या दिन थे
आंगन में
हम बच्चे भीगते थे
दिन में कई बार
और फिर पड़ती थी
दादी की मार
रोती थी दादी
कपड़े सूखते नहीं
और ये बदमाश बच्चे
भीगने से नहीं आते
बाज

वो भी क्या दिन थे
कागज की
बनाते थे नाव
एक - दो नहीं
ढेर सारे
और फिर
शुरू होती थी
जिद
उसे बहाने की
पानी की तेज धार में
याद है...
दादा की गोद
जिसमें बैठकर
छाते में
जाते थे सड़कों पर
बहाने अपनी कागज की नाव
सड़कों पर
बहते पानी में
देख अपनी नाव
होती थी इतनी खुशी
जैसे अपनी नाव
तैर रही हो
बीच समन्दर में

वो भी क्या दिन थे
बरसात में लगती थी ठंढ
क्योंकि होता था
हर तरफ पानी ही पानी
और बहती थी
तेज हवाएं
दादी के आंचल में
छुप कर सुनते थे
राजा-रानी की कहानियां
बनता था हर दिन
गरमागरम पकौड़ियां
और खाते थे
हम बच्चे चटनी के साथ
जिसमें नहीं होती थी
मिर्च
ये भी होता था
दादी की मेहरबानी
क्योंकि
वही पीसती थी चटनी
अपने हाथों से
क्योंकि घर में नहीं था
मिक्सर-ग्राइंडर
सिल पाटी की
उस चटनी का स्वाद
आज भी याद है
जिसे याद कर
सिहर जाता हूं
क्योंकि आज भी
उस स्वाद को
ढूंढने की कोशिश करता हूं

वो भी क्या दिन थे


आम तौर पर मामलों को सीबीआई जांच की सिफारिश के लिए पीसी करने वाली सीएम मायावती ने एक हाई प्रोफाइल मामले की जांच का जिम्मा सीबी-सीआईडी को सौंपने का ऐलान किया है....लेकिन न्यायपसंद मुख्यमंत्री की ये घोषणा लोगों के गले नहीं उतर रही क्योंकि इस मामले में लखनऊ पुलिस के आला अधिकारी के साथ एक बीएसपी विधायक का नाम भी सामने आ रहा है....और कांग्रेस ....उनकी ही पार्टी के कुछ और नेताओं के नाम भी इसमें शामिल होने की आशंका जता रही है....और इसी मामले की सीबीआई जांच कराने की मांग खुद रीता बहुगुणा जोशी, केंद्रीय कोयला राज्य मंत्री और पूर्व गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह कर चुके हैं....इस बारे में मीडिया में कई ऐसी तस्वीरें प्रसारित हो चुकी हैं...जिनमें ये साफ साफ दिख रहा है कि रीता बहुगुणा का घर ....एक तरह से....पुलिस संरक्षण में जलाया गया.....जाहिर है....जब सत्ता किसी अपराध में शामिल हो...तो पुलिस और प्रशासन तो शामिल होगा ही....ये अलग बात है कि मामला जांच का है....लेकिन सीबी-सीआईडी मामले की कितनी निष्पक्षता से जांच कर पाएगा...सभी जानते और मानते हैं.....और ये भी जानते हैं कि क्यों मुख्यमंत्री साहिबा ने मामला सीबीआई को नहीं देकर सीबी-सीआईडी को सौंपा......जाहिर है आरोपी सरकार के करीब...जांच का जिम्मा सरकार की एजेंसी को....रिपोर्ट क्या होगा...सबको पता है....अब क्या कहना...क्या छिपाना....सैंया भये कोतवाल...अब डर काहे का


घर जलने का दर्द
सभी को होता है
सुनकर
हर दिल रोता है
घर
चाहे रीता का हो
सीता का
या फिर माया का

सच सुनने की ताकत
सबमें नहीं होती
क्योंकि सच
नुकीला होता है
सच
तीखा होता है
कड़वा होता है
रीता ने सच कहा
माया को चुभ गया

वैसे बिना जेल गए
सभी बहुत कुछ कहते हैं

लेकिन एक बार गए
फिर
नरम पड़ जाते हैं

पहले वरुण
अब रीता
वरुण भूल गए
धार्मिक कट्टरता
रीता ने कहा
माया से नहीं है
जातिगत लड़ाई

लेकिन

इतना तो है

घर जलने का दर्द
सभी को होता है
चाहे रीता हो
सीता हो
या हो माया

आज रीता रोई
भले आंसू न दिखे हों
कल सीता...गीता
फिर माया का नंबर भी
कभी तो आएगा


आज तकरीबन हर बैंक के कामकाज में एटीएम की बड़ी भूमिका है....एटीएम ने बैंकों की भीड़ को कम करने में काफी मदद की है....लेकिन जब एटीएम से निकलने लगे नकली लोट...तब...हम...आप क्या करें....जी हां ये मामला इलाहाबाद के सिविल लाइन्स इलाके की है....जहां के कर्नाटक बैंक के एटीएम से एक व्यक्ति को मिला पांच सौ रुपए का एक नकली नोट......ये मामला......सीधे सीधे बैंक और ग्राहक के बीच विश्वास का है...वैसे भी विश्वास की डोर बड़ी पतली होती है....कमजोर होती है....इलाहाबाद के एसपी राय ने एटीएम से पैसा निकाला...और जब वो अपने ऑफिस पहुंचे तब उन्हें इसका पता चला ...कि जो नोट उनके पास है वो नकली है......जाहिर है एटीएम से निकला नोट नकली तभी होगा...जब मशीन में डाला गया होगा.....एस पी राय देर शाम तक बैंक में बैठे रहे...बैंक अधिकारी ये मानने को कत्तई तैयार नहीं था कि उनके एटीएम से नकली नोट निकला है.....जाहिर है ये मानना..न मानना उनके हाथ में है लेकिन इस बात की सच्चाई का पता कैसे चलेगा.....या तो बैंक तत्काल अपने एटीएम के सभी नोटों को जांच कराता.....और जांच पड़ताल करता कि कहीं अब भी तो एक या कुछ नकली नोट नहीं हैं....अगर नहीं निकलता तो बैंक ये कह सकता था कि जो शख्स नकली नोट लेकर आया है वो गलत है......लेकिन बैंक ने ऐसी कोई भी कार्रवाई नहीं की...अति आत्मविश्वास भी हो सकता है.
बैंक अधिकारी ने अपने ग्राहक से ये भी कहा कि आप एटीएम से पैसे निकालने के बाद कई जगह घुमकर आ रहे हैं इसलिए भी ये कहना मुश्किल है कि आपने जो पैसे एटीएम से निकाले थे....ये पांच सौ का नकली नोट वहीं से मिला है....लेकिन ये कहते वक्त बैंक अफसर ये भूल गया कि एटीएम से पैसे निकालने के बाद हर कोई विश्वास के साथ घर जाता है...बाजार जाता है....अपने कामकाज में लग जाता है....ऐसा कोई नियम नहीं कि एटीएम से पैसे निकालो ....तत्काल बैंक जाओ...चेक कराओ...कि कहीं नोट नकली तो नहीं....अगर ऐसा होता तो एटीएम की जरुरत ही क्या थी.....बैंकों में थोड़ी भीड़ ही तो होती...नकली नोट मिलने की गुंजाईश तो कम ही थी..... इसलिए बैंक अफसरों का ये कहना बिल्कुल ही गलत है....अगर कोई ग्राहक इमानदारी से कोई बात कहता है तो बैंक को चाहिए कि वो भी पूरी इमानदारी से मामले की पड़ताल करे...क्योंकि जब स्टेट बैंक ऑफ इंडिया.....आईसीआईसीआई बैंक के एटीएम से नकली नोट निकल सकता है तो दूसरे बैंकों से क्यों नहीं.......यहां एक दलील ये भी है कि अब नकली और असली नोटों में फर्क इतना कम हो गया है कि बैंक अधिकारी भी इसके झांसे में आ सकते हैं...ख़ासकर एक एक नोट की चेकिंग ...जांच पड़ताल की अगर बात की जाए........मैं ऐसे कई मामलों को जानता हूं ...जिसमें लोगों को एटीएम से नकली नोट मिले और उन्होंने ये सोचकर कि कौन पुलिस...कचहरी के लफड़े में पड़े ....इसकी शिकायत करनी भी जरुरी नहीं समझी........एक से ज्यादा मामलों में बैंक अधिकारियों ने नकली नोट बदलकर ग्राहकों को चलता कर दिया.....लेकिन मेरी हर किसी से गुजारिश है कि अगर आपको कभी किसी एटीएम से नकली नोट मिले तो इसकी पुलिस में रिपोर्ट जरुर दर्ज कराएं....जिससे बैंक अफसरों को ये पता चल सके उनके ग्राहक इमानदार हैं.....और अपने अधिकारों के प्रति जागरुक भी.......क्योंकि नोट नकली हो सकते हैं पर बैंकों और ग्राहकों के बीच का विश्वास नकली नहीं...वो तो असली है....बिल्कुल असली........


क्या कभी आपने भगवान को हड़ताल पर जाते देखा है.....मेरा दावा है कि आपमें से निन्यानवे फीसदी लोग कहेंगे नहीं....लेकिन जनाब लगता है आप जानबूझकर नजरअंदाज कर रहे हैं....भगवान भी हड़ताल पर जा सकते हैं....और जाते भी हैं....याद कीजिए....कुछ याद आया नहीं न.....एक बार फिर याद कीजिए....अब भी याद नहीं आया......चलिए मैं ही बता देता हूं .....भगवान कब कब हड़ताल पर गए...या जाते हैं....जबसे हमने होश संभाला.....हम...से का मतलब हम सभी से है.....यही सुनता आया हूं कि धरती पर डॉक्टर्स भगवान का रुप होते हैं....यानी आसमान के भगवान की तरह धरती के भगवान हैं डॉक्टर्स...अब तो आप समझ गए होंगे....बिल्कुल सही.....आजकल यूपी के कई बड़े शहरों के जूनियर भगवान हड़ताल पर हैं....जूनियर भगवान मतलब...जूनियर डॉक्टर्स.....अब भगवान ही हड़ताल पर हों तो लोग मरेंगे ही.....उन्हीं के आसरे पर तो पूरी दुनिया है....दुनिया मतलब धरती.....तो कानपुर में वही चौदह पंद्रह ने दम तोड़ा...तो इलाहाबाद में एक दो लोगों की सासें बंद हो गईं.....लेकिन इससे भगवान को कोई लेना देना नहीं.....क्योंकि ये भगवान खाते पीते ...बोलते चालते भगवान हैं....इन्हें चाहिए.....नॉन प्रैक्टिसिंग एलाऊंस...अब ये मत पूछिए कि भगवान को कैसा भत्ता.....क्योंकि ये भगवान धरती के हैं.....और इन्हें खाने पीने रहने के लिए पैसे की जरुरत भी होती है.....


घर से निकलने से पहले
करता हूं आपको प्रणाम
घर से निकलते ही
सोसायटी में कारों पर
देखता हूं आपकी तस्वीर
सिर झुक जाता है
खुद-ब-खुद
कहना नहीं पड़ता
बस में चढ़ा
आगे के शीशे पर दिखी
आपकी
एक नहीं ....कई तस्वीरें
अलग अलग मुद्राओं में
एक बार फिर नमन आपको
बस की खिड़की से
दिखती है
हर रोज आपका मंदिर
मंदिर पर लगा साईनबोर्ड
जिसमें हैं
आपकी अनुपम तस्वीरें
फिर सिर झुक गया
खुद -ब - खुद
ऑफिस में मंदिर है
मंदिर में है
आपकी
झक्क सफेद प्रतिमा
हाथ जुड़ जाते हैं
सिर झुक जाता है
आपको देखकर
बंधती है
एक उम्मीद
जीवन में खुशी का
लोग कहते हैं भगवान कहां है..
मैं तो कहता हूं
हर कहीं है
बस रुप अलग है
देखने वाले की नज़र है
किसी को
हर तस्वीर में नजर आते हैं साईं
किसी को कोई
तस्वीर ही नहीं दिखती

एक मोड़ पर
मैंने देखा
सच का चेहरा
बुझा-बुझा सा
रुखे बाल
सूखापन हर कोने में
पसीने से लथपथ
झुर्रियां भरी जवानी में
धंसी-धंसी आंखें
स्मित विहीन
मैंने सोचा
पुछें...
क्या हाल बना रखा था
पर ..फिर सोचा
जले पर नमक न लगे
छोड़ दिया
अगले मोड़ पर
झुठ मिला
चेहरे पर हों
दीप जले से
ताजा फूलों सा
खिला-खिला सा
गाल गुलाबी
नैन शराबी
हर बात पर
मुस्कान बिखेरता
पूछ ही बैठा
कैसे हो
उत्तर मिला
समय के साथ चलता हूं
और कोई राज नहीं
यही फर्क है
झुठ और सच में
एक समय के साथ
चलता है
एक कोशिश करता है
कोशिस क्या..हिमाकत कहिए
समय को
अपने साथ चलाने की

सच के चेहरे
रुखे सूखे
झुठ के चेहरे
दप दप करते
सच के चेहरे
मुरझाए से
झुठ को देखो
सदा चमकते
सच का क्या है
जो भी है
बस सामने है
आईने की तरह
झुठ की तो
बस पूछो ही मत
दिखता कुछ है
होता है कुछ और
एक चेहरे पर इतने चेहरे
कोई पहचान नहीं सकता
कोई जान नहीं सकता
कुछ तो दिखते
सच की भांति
मिलते जुलते
ऐसे जैसे
बस सच ही हों

अब तो हर शख्स की
नज़रों में झलकता है फरेब
कोई अपना हो या हो गैर
करें किसपे यकीं

हर चेहरे पे
नज़र आती है
मुस्कुराहट झुठी
ठहाके
खोखले से लगते हैं
बस
सच लगता है
तो
आंखों में आंसू
लेकिन
हर कोई
हर किसी के सामने
रोता भी नहीं

हंसने की कोशिश में
निकल आते हैं
कमबख़्त आंसू

किसी के दुख-दर्द में
संवेदनाएं
हो गई है
दिखावे की चीज
लोग भरे गले से
कहते तो
बहुत कुछ हैं मगर
दूर जाते ही
हंसते हैं

परीक्षा में
फेल होने पर
बच्चे
कर लेते हैं आत्महत्या


कर्ज अदा करने में
सक्षम नहीं होने पर
किसान
झूल जाता है फांसी पर
नौकरी छूट जाने पर
कूद जाता है
पाचवीं मंजिल से
कोई
पर
कोई नेता
आज तक
कभी नहीं मरा
भले
हार जाए
लोकसभा का चुनाव
विधानसभा का भी
पार्षद का भी
पंचायत का भी
उसे शर्म
नहीं आती
क्योंकि नेतागिरी
बेशर्मी की हद है
जनता को
बेवकूफ
नहीं बना पाया
बस
सोचकर
चुपचाप रह जाता है
चलो
अगली बार देखेंगे
कैसे बचेगा बच्चु

ट्वेंटी-ट्वेंटी
वर्ल्ड कप में
टीम इंडिया
हार गया
तो क्या हुआ
खेल में
जीतता
कोई एक ही है

हार की हार
स्वीकार करो
हारने वाला ही
अगली बार
जीतने के लिए
उतरता है
मैदान में

जो हारा नहीं
उसे क्या पता
जीत का
असली स्वाद

सुनता रहा हूं
एक मच्छर
बना देता है
आदमी को हिजड़ा
आज सुनिए
एक ग़लत फैसला
नहीं छोड़ता
इंसान को
किसी काम का
सोचिए
आपने
कब लिया
कोई
गलत फैसला

मैं जिस रुट की बस से रोज ऑफिस आता हूं...उसमें अमूमन कई चेहरे जाने पहचाने से लगते हैं.....या यूं कहें तो लगने लगे हैं...रोज उतरने चढ़ने भर का रिश्ता है...कोई किसी को देखकर मुस्कुराता भी नहीं ...बस देखता है...सोचता है....अच्छा आज भी...ऐसे ही एक चेहरा है एक लड़की का.....मॉडर्न सी लड़की का.....चेहरे पर काला चश्मा....गहरे लिपस्टिक रंगे होंठ....हाथ में दो मोबाईल फोन....कान में लगा ईयरफोन.....लड़की मोटी सी है पर हर रोज नए लड़के के साथ.....कोई भी हो....मुझे क्या.....कई बार लड़कों के साथ खुसर-फुसर करते देखा..सट-सटाकर....मुझे क्या.....उस दिन अचानक वो चिल्लाने लगी.....समझ क्या रखा है.....शरीफ लड़कियों को छेड़ते शर्म नहीं आती...ठीक से बैठते नहीं.....पीछे मुड़कर देखा...वही लड़की....नए लड़के के साथ...लड़का चुप था....क्या बोलता......लड़की चिल्लाए जा रही थी......एक यात्री पर.....जिसका पैर जरा छू गया था उसके पैर से....बस्स......अब शरीफ (?) लड़की है तो चिल्लाएगी ही......फिर शरीफ लड़की चुप हो गई.....लड़के से बातचीत में गुम हो गई.....शरीफ जो ठहरी.....मेरा स्टॉप आया...मैं उतर गया......

लोग कहते हैं
आजकल
हर शय बिकती है
मैं कहता हूं
नहीं जनाब
आजकल नहीं
सिर्फ आज
कल किसने देखा है
और जो कल
बीत चुका है
उसके बारे में
मुझे कुछ भी कहां पता

मुझे याद है
बचपन के वो दिन
जब
जुगनुओं को पकड़ने के लिए
मचल उठता था मन
किसी पत्ते पर
बैठी तितलियों से
जलन होती थी
ये सोचकर
कि वो
मेरे कमीज पर
क्यों नहीं बैठी

मुझे याद है
बचपन के वो दिन

जब घर के करीब
हलवाई की दुकान पर
मैं रोज जाता था
और मुझे रोज मिलती थी
मिठाई बिना मांगे
क्योंकि मुझे अच्छी लगती थी
जलेबी
और मेरे लिए हर रोज
घर आती थी
गरमागरम जलेबियां
रुपए के बदले में तौलकर अलग
और मेरे नाम से मुफ्त की अलग

मुझे याद है
बचपन के वो दिन
लेकिन अब कहां मिलती हैं

वो रसदार जलेबियां
मिलती भी हैं
तो वो स्वाद कहां
उसमें बचपन की मिठास थी
अब है
जवानी की कड़वाहट
तब हकीकत का तीखापन नहीं था
अब तो हर मिठाई लगती है तीखी
मिर्च से ज्यादा

मुझे याद है
बचपन के वो दिन

भूखे को नजर आती है
हर शय में बस रोटी
आसमां में
जमीं पर
चांद में
नदियों - तालाबों में
क्योंकि
भूख़ से बड़ी
दुनिया में कुछ भी नहीं
न जिस्म काम करता है
न दिमाग सोचता है
न कुछ याद आता है
कुछ देर पहले का भी कुछ
हर गोल चीज
लगती है रोटी की तरह
स्वाद का एहसास भी
होने लगता है
मुंह में पानी आ जाता है
और कुछ देर के लिए
तृप्त हो जाता मन
ये सोचकर
कि अब तो रोटी पास है

(अर्थ मत ढूंढिए)

सूरज की किरणें उदास है
कोई मेरे आसपास है
चांदनी क्यों खोई खोई है
आखिर उसे किसकी तलाश है

जब जीवन का अंत विनाश है
मालिक क्यों कोई दास है
कोई मुझको ये समझाए
क्यों मूल्यों का हो रहा ह्रास है

देख समाज की नित घटनाएं
मन को होता क्यों त्रास है
कोई किसी को नहीं है भाता
तो कोई क्यों खासमखास है

अच्छा ये बतलाओ मुझको
आखिर रोता क्यों आकाश है
वो विशाल है, सबसे ऊपर
आखिर उसे क्या संत्रास है

आज की ताजा ख़बर
जेट पर उड़ेगी माया
78 करोड़ की जेट पर
क्या अजूबा है इसमें
जब माया है
तब जेट भी उसके लिए कम है
क्योंकि माया की माया के क्या कहने

कभी किसी की तुम परवाह मत करना
चोट लगे,दम निकले,पर आह मत करना
कभी किसी की तुम परवाह मत करना
अच्छा हो कितना भी, कुछ भी पर दोस्त मेरे
आम लोगों की तरह वाह वाह मत करना
कभी किसी की तुम परवाह मत करना
जीवन में खुशियां हो, गम हों..जो भी हो
आंसू बहाकर जीवन स्याह मत करना
कभी किसी की तुम परवाह मत करना
किसी बात पर भी अपनी नाराज़गी
भूलकर भी जाहिर सरेराह मत करना
कभी किसी की तुम परवाह मत करना
चोट लगे,दम निकले,पर आह मत करना
कभी किसी की तुम परवाह मत करना

चेहरे पर चेहरा

शब्दों के चेहरे
कहते हैं सबकुछ
बस आना चाहिए
आपको पढ़ना

शब्द मुस्कुराते हैं
शब्द खिलखिलाते हैं
होते हैं गुस्सा भी
शब्द दिल मिलाते हैं

शब्दों के चेहरे
कहते हैं सबकुछ
बस आना चाहिए
आपको पढ़ना

गुस्से में शब्दों के
लाल नहीं होते
चेहरे
गतिहीन होते हैं
शिथिल से हो जाते हैं

शब्दों के चेहरे
कहते हैं सबकुछ
बस आना चाहिए
आपको पढ़ना

शब्दों को मत समझो
शब्द नहीं होते
निर्जीव
शब्द
बोलते भी हैं
कुछ
बोलते नहीं
बिना बोले
सिखा जाते हैं
ढेरों अर्थ
अनकहे शब्दों की
बात ही मत पुछो

शब्दों के चेहरे
कहते हैं सबकुछ
बस आना चाहिए
आपको पढ़ना

शब्दों को भी
लगती है ठेस भी
रोते भी हैं शब्द
शब्दों के होते हैं
दिल भी
दुखते भी हैं दिल
दर्द भी होता है

शब्दों के चेहरे
कहते हैं सबकुछ
बस आना चाहिए
आपको पढ़ना

राहुल गांधी जीत गए तुम
अब जनता को क्या दोगे
महंगाई कम होगी
या फिर
जनता को तुम रुला दोगे
पांच साल तो अब तेरा है
जो चाहो तुम कर सकते हो
रुस,अमेरिका,इग्लैंड की
सैर पे भी तुम जा सकते हो

वादे बड़े बड़े करके तुम
वोट तो हमसे तुने ले लिया
लेकिन अब है मेरी बारी
देखें तुम क्या कर सकते हो

हमें किसी पर नहीं भरोसा
तेरी बात पे वोट दिया है
दिखला देना कि तुम भी
दूसरे जैसे तो नहीं हो तुम भी

तुमसे ज्यादा नहीं चाहिए
मुंह को मिलता रहे निवाला
कोई ऐसी बात नहीं हो
जिससे हो तेरा मुंह काला
पार्टी के लोगों पर अंकुश
रखना है अब तेरा काम
नहीं तो अगले एलेक्शन में
कर देगी जनता काम तमाम

राहुल गांधी जीत गए तुम

बहुत कर लिया भारत दर्शन
अब भारत की फिक्र करो
जरा अपनी पार्टी में भी
समस्याओं का जिक्र करो

पोंछ सकोगे तुम भी
जनता के आंसू
या कि तुम
निकलोगे दूसरे नेताओं जैसे
जिनको याद नहीं आते हम

राहुल गांधी जीत गए तुम
अब जनता की बारी है
पांच साल में हम देखेंगे
तेरी कितनी तैयारी है
सेवा - भाव जरा है तुझमें
या सारी होशियारी है

राहुल गांधी जीत गए तुम
अब जनता की बारी है

मेरे शहर की गलियां
खुबसुरत नहीं
पर अपनापन तो है
पतली ही सही पर
पर
सर्र से निकल जाती थी मेरी साईकिल
बिना किसी को छुए
गड्ढों का क्या है
आदत सी हो गई थी
हर चेहरा जाना पहचाना था

मेरे शहर की गलियां
याद आती हैं
आज भी
वो नालियों से निकला कचरा
जिससे बचकर निकलते थे लोग
अंधेरे में भी
जिसके बारे में
मुझे पता था
कहां है ठोकर
कहां है गड्ढा
कहां रखी है
ईंट का टुकड़ा

मेरे शहर की गलियां
खुबसुरत नहीं
लेकिन
मुझे पता था
रात में
कहां होता है अंधेरा
कहां होती है रोशनी
कहां बैठे होते हैं
चोर उचक्के
एक झरोखा था
रात-अधरात
जहां जाने में
डर नहीं लगता था
कभी भी कहीं भी
क्योंकि उन्हीं गलियों में
मेरा बचपन बीता
लड़कपन भी
फिर डर कैसा
फिर बड़ा हुआ

वक्त ने ली करवट
और मैं पहुंच गया
एक अंजान शहर में
जहां आज
पांच साल बाद भी
गलियां अपनी नहीं हुईं
लोग अब भी पराए हैं
पड़ोसियों की क्या कहें
हरदम नजरें झुकाए हैं
आज भी याद आती है

मेरे अपने उस शहर की गलियां
जहां हर कदम के फासले
आज भी अपने हैं
लोग आज भी जानते हैं
पहचानते हैं
मेरा चेहरा

(मदर्स डे पर विशेष)
जीवन में अबतक जो भी मैंने देखा
समझा...जाना....
यही पहचाना
कि मां ही जानती है
अपने बेटे का दर्द
तकलीफ,मुश्किले
बिना कहे
समझ जाती है क्यों
सूखे हैं
उसके लाडले के होंठ
क्यों बिखरे हैं बाल
क्यों उड़ रही है
जिगर के टूकड़े के
चेहरे पर हवाईयां
क्यों निकल रहे हैं आंसू
क्यों बरस रही हैं आंखें
क्योंकि वो मां है
क्यों गुमसुम हैं
उसका बेटा
क्यों खामोश है
उसकी निगाहें
क्यों नहीं उठ रही
झुकी-झुकी सी निगाहें
क्यों ठिठक रहा है
उसके लाडले के पैर
क्यों नहीं आ रही
उसकी आंखों में नींद
क्यों अधखुली हैं पलकें
क्यों नजरें चुराने लगा है
कुछ
अपनी मां से ही छुपाने लगा है
क्योंकि वो मां है

ख़बर है कि लोकसभा चुनाव में पीलीभीत से भारतीय जनता पार्टी उम्मीदवार वरुण गाँधी के ख़िलाफ़ उत्तर प्रदेश सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगाने को अवैध ठहराया गया है...
और इसे अवैध ठहराया है उत्तर प्रदेश के ही सलाहकार बोर्ड ने ..जिसमें हाईकोर्ट के एक जज और दो रिटायर्ड जज होते हैं.... ये बोर्ड इस बारे में सलाह देता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगाने का फ़ैसला कितना सही है. ....बोर्ड ने वरुण गांधी के मामले में कहा है कि एनएसए काफी कठोर क़ानून है....और इस मामले में इसे लागू करने का पर्याप्त आधार नहीं है. .....ये सिफारिश मायावती सरकार को एक तमाचा है....और सिर्फ माया सरकार को ही नहीं हर उस शख्स को जो किसी कानून को ....राजनीतिक स्वार्थ के लिए उपयोग करता है..मैं ये नहीं कह रहा कि वरुण गांधी ने जो भी कहा वो सही था....लेकिन अगर वरुण गांधी पर एनएसए लगाया जा सकता है तो इसके दायरे में हर वो राजनीतिज्ञ आना चाहिए...जो समाज को तोड़ने का संदेश देता है...देश को तोड़ने की बात कहता है...और ऐसी कोई भी बात कहता है...या कहने की जुर्रत करता है....जिससे समाज...देश..को नुकसान होने की आशंका होती हो...एनएसए एक बानगी है.....देश में कानून.....कानून को पालन करने वाली संस्थाएं राजनीति के गुलाम बने हुए हैं.....चाकरी करते हैं....बंधुआ मज़दूर की तरह....ये अलग बात है कि जागरुकता...चेतना के अभाव में आम आदमी मूक दर्शक बना रहता है....सोचता है.....कुछ कहें पर कुछ कहता नहीं.......
क्या वरुण गांधी....लालकृष्ण आडवाणी....कल्याण सिंह...उमा भारती......लालू प्रसाद...रामविलास पासवान.....साधु यादव .......नरेन्द्र मोदी.....कई तथाकथित मुस्लिम नेता.......धर्मगुरू तकरीबन सभी धर्मों के....और ये राज ठाकरे...बाल ठाकरे.....जबतब समाज को बांटने की बात कहते हैं.....इन पर एनएसए क्यों नहीं लगना चाहिए.....मुझे तो लगता है कि सभी नेताओं को पहले एनएसए में बंद कर दो....एडवाइजरी समिति को भंग कर दो....कोई ये न कह सके...कि फैसला अवैध है......तुर्रा ये कि कोई इस लायक भी न बचे कि वो ये कह सके कि हम इसे अवैध नहीं मानते....अब इसका फैसला सुप्रीम कोर्ट में होगा.......क्या अब कानून का फैसला नेता करेंगे....वो भी नेताओं पर....माया तय करे कि वरुण पर एनएसए लगे कि न लगे....लालू तय करें कि नीतीश पर कौन सी धारा लगे न लगे..सोनिया तय करे कि क्वात्रोची को क्लीन चिट मिले कि न मिले....फिर तो भईया....राम ही राखे.....क्योंकि जनता तो तटस्थ होती जा रही है........

कश्मीर तो फिर भी कश्मीर है...लेकिन इस बिहार को क्या हो गया...यहां तो लोग अब अमन चैन की बात करतने लगे हैं...लालू से छुटकारा मिल गया है लोगों को ...कहीं बिहार सुस्त तो नहीं हो गया....विकास की हल्की सी किरण देख सवेरा तो नहीं समझ लिया लोगों ने जबकि अभी तो मीलों दूर जाना है विकास की उस कल्पना के लिए जिसका ख्वाब देखा था डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने.....स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण ने......फिर इतनी सुस्ती....इतनी थकान कि वोट ही न डालेंगे....जम्हूरियत से ऐसा विकर्षण अच्छा नहीं समाज के लिए देश के लिए....सरकार के लिए...जनता के लिए.......वो भी तब जब लोगों को जागरुक बनाने के लिए...ये दिखाने के लिए कि भईया वोट देना कितना जरुरी है...(भले ही दिखावे के लिए हो).....मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद ट्रेन से चल पड़े हों वोट डालने ...इस तर्क के साथ कि हमारा मतदान केंद्र रेलवे स्टेशन के करीब पड़ता है.....ये अलग बात हो कि वो जिस सीट पर बैठे थे ...उसका शीशा यानी ग्लास में दरार थी...दरका हुआ था वो...ये दिखा रहा था कि लालू की रेल दरकी हुई है....सोच दरकी हुई है.....राजनीति दरक रही है.....कुनबा दरक रहा है.....टीवी चैनलों पर देखकर कोफ्त हुई कि बिहार के सिर्फ सैंतीस फीसदी लोगों ने चौथे चरण के मतदान में हिस्सा लिया....मीडिया के इतने सारे कार्यक्रमों ...प्रचारों के बावजूद कि बेटा पप्पु मत बनना.....माफ कीजिएगा...कोर्ट ने भले ही रोक लगा दी हो लेकिन पप्पु को पप्पु नहीं तो क्या कहेंगे......बिहार में वैशाली प्रजातंत्र की एक मिसाल मानी जाती है.....लेकिन उसी बिहार में लोगों को प्रजातंत्र से मोहभंग .....कहीं कोई बुरा सपना तो नहीं....या आने वाले किसी ख़तरे का संकेत तो नहीं.....कहीं हमारा लोकतंत्र कमजोर तो नहीं हो रहा.......
मुझे आज भी वो दिन याद है...जब हमारे गांव में लोकसभा चुनाव के लिए वोट डालने वालों की लंबी कतार लगती थी.....उस पुस्तकालय में सप्ताह भर पहले से लोगों का आना जाना...किताबें वाचने का काम बंद हो जाता था...लंबी बंदूकों वाले जवानों का डेरा हो जाता था वो पुस्तकालय...तब चुनाव में प्रचार भी खूब होता था...उम्मीदवारों की गाड़ियां....जिसमें आगे-पीछे लाऊडस्पीकर लगी होती थी....चीख-चीखकर लोगों की नींद हराम कर देती थीं.....गांड़ियों से धुएं के साथ कागज के पर्चे भी उड़ते थे......पूरे गांव के छोटे से बाज़ार में सरस्वती पूजा की तरह कागजों के बैनर पोस्टर लग जाते थे...सज जाता था हर इक घर-मकान-दुकान...जैसे कोई बड़ा त्योहार हो.....लेकिन आज न लाऊडस्पीकर की गूंज है.....न गाड़ियों का शोर...न रंगीन कागजों का प्रचार....बस्स नेताजी आ गए...यही क्या कम है......उड़नखटोले से नीचे तो कोई नेता आता भी नहीं.......नेता है भईया कोई आम आदमी तो नहीं......ये अलग बात है कि चुनाव के बाद जीत मिली तो भगवान हो जाता है और हार गया तो आम आदमी से बदतर.......

और तब वोट देने के लिए लंबी कतार लगती थी....मर्दों की अलग-महिलाओं की अलग.....तब चुनाव में गोली-बंदूक-बम के डर से लोग सुबह सवेरे वोट डालने जाते थे......क्योंकि आम तौर पर इनका इस्तेमाल दोपहर के बाद ही होता था...फिर भी लोग जाते थे....जान हथेली पर लेकर...लेकिन आज लोगों को क्या हो गया है....सुरक्षा के इतने पुख़्ता इंतजामात अगर तब होते तो शायद नब्बे फीसदी लोग वोट डालते...मेरे दादाजी भी....जो हमेशा ये कहते थे...जाओ घर पर भी कोई होना चाहिए....लुच्चे लफंगे बहुत घुमते हैं आज के दिन.....तब गाड़ी-घोड़ा क्या साईकिल तक चलाने की इज़ाजत नहीं होती थी पॉलिंग के दिन...फिर भी लोगों का हुजूम चलता था वोट डालने ...जैसे पिकनिक मनाने जा रहे हों.....लेकिन मुझे लगता है जैसे जैसे लोग आधुनिक हो रहे हैं..वैसे वैसे लापरवाह भी...आलसी भी...और अपने अधिकारों के प्रति उदासीन भी.....वोट के दिन मिली छुट्टी का मज़ा लेना चाहते हैं घर की एसी में रहकर....बच्चों के साथ टीवी देखर...फिल्में देखकर ...लेकिन ये लोग भूल जाते हैं कि वो खुद तो जम्हूरियत का अपमान कर ही रहे हैं...अपने बच्चों में भी उसी का बीज डाल रहे हैं......और ऐसे ही लोग सरकार पर तोहमत भी खूब लगाते हैं.....ये नहीं कर रही सरकार....वो नहीं कर रही सरकार.......सवाल ये है जब आप अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं कर रहे फिर दूसरों पर ऊंगलियां उठाने पहले सोच तो लीजिए......थक आप गए हैं....तोहमत जम्हूरियत पर लग रही है.....वोट आप नहीं डालते......कमजोर लोकतंत्र हो रहा है...क्योंकि आप हैं तो लोकतंत्र है.....आप ही से है लोकतंत्र...आपका ही है लोकतंत्र......


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
ज़िन्दगी में और कहीं हो न हो...लेकिन लगता है राजनीति में सब ज़ायज़ है...अगर आप (आप कहते शर्म आती है...आप इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अब भी कुछ अपवाद बचे हैं....) राजनेता हैं...तो किसी को कुछ भी कहिए...चलेगा...ख़ासकर चुनाव के मौके पर....नीच...व्याभिचारी...लुच्चा लफंगा कुछ भी कह सकते हैं...कौन देख रहा है.....चुनाव आयोग को और भी कई काम हैं....नेताओं के घटिया बयानों पर नज़र रखने के अलावा....और कोई कबतक कितना नज़र रखे..भाई...एक ..दो ..हो तो भी चलेगा...यहां तो अधिकतर वही भाषा...नहीं भांसा (कूड़ा) बोलने लगे हैं.....बिना ये सोचे कि जनता क्या सोचेगी...लगता है ये नेता ये सोच-समझ चुके हैं कि जनता को भी अब उनके बयानों-वक्तव्यों से कोई मतलब होता नहीं....लेकिन जनाब ये सोच ही इन नेताओं को एक दिन ले डूबेगी...क्योंकि जनता कल भी जनार्दन थी....आज भी जनार्दन है....और जबतक इंडिया में डेमोक्रेसी यानी जम्हूरियत रहेगी.....(जिसके न होने का कोई मतलब ही नहीं..क्योंकि जड़े काफी गहरे जमीं हैं...)...कल भी जनार्दन रहेगी.....अब किसकी-किसकी बात करें....कोई अपने विपक्षी उम्मीदवार को गाली दे रहा है....कोई विपक्षी पार्टी को गाली दे रहा है....और कोई न मिला तो कोई जनता को ही....भईया....जनता यानी आम आदमी जम्हूरियत में असली राजा होता है...एक बार आप विधायकों - सांसदों को वापस लेने का अधिकार देकर देख लो....अच्छे अच्छों को उखाड़ न दिया तो कहना.....ये तो अच्छा है कि आज के नेता इस बिल को इस डर से पास नहीं होने देंगे...कि फिर एक न एक दिन हमारी भी बारी आ जाएगी......
वैसे नेताओं का क्या है....आगे नाथ न पीछे पगहा...पगहा समझते हैं न...समझते ही होंगे ...कभी एक बात पर नहीं टिकते हैं ये लोग..कभी कुछ कहेंगे...और फिर अपनी बात से बदल जाऐंगे.....चुनाव के पहले गठबंधन की बात करेंगे...लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएगी..गठबंधन कि धागे...बिखरते नजर आते हैं....क्योंकि उन्हें हर एक सीट अपनी नज़र आने लगती है....किसी एक पार्टी पर उंगली उठाने से कोई फायदा नहीं.....लेकिन सभी एक जैसे भी नहीं....लेकिन जब वोटों की गिनती होने लगेगी...परिणाम आने लगेंगे.....इनकी बोली बदलने लगेगी...अगर कम सीटें मिलती दिख रही हों तो ये आकलन करने लगते हैं...कि किसे समर्थन करें कतो मलाईदार मंत्रालय मिलेगा.....ऐसे नेताओं पर कोई यकीं करे तो कैसे....लेकिन जब कोई चारा न हो ...विकल्प न हो तो करना ही पड़ता है..........
मतलब...उ का है...कि कल तक हम निवाला....हम प्याला...आज पार्टी बदली....आज ही भाषा भी बदल गई....अरे नेता हैं तो पार्टी तो बदलेंगे ही....कोई जमींदारी तो है नहीं....कि कांग्रेस में हैं तो कांग्रेस के ही होकर रहेंगे जिंदगी भर...भईया...राजनीति प्राइवेट कंपनी की नौकरी की तरह होती है.....वो दिन गए...कि कांग्रेस से शुरु की...राजनीति की दुकान तो कफन भी कांग्रेस का झंडा ही बनेगा.......अब न तो नेता रहे पहले जैसे...न नेतागिरी....न सिद्धांत बचा.....न विचार....अब तो बस पैसे की बात है...कौन कितना देता है....कौन कितना लेता है.....पैसा है तो एक नहीं दस पार्टियां हाथोंहाथ आपको लेने के लिए तैयार हो जाऐंगी...बस एक बार आप बदलने का संकेत दीजिए......और अगर आप अपने इलाके के वजनदार नेता हैं.....लोग आपको चाहते हैं....आपके व्यक्तित्व से.....किसी पार्टी के नाम से नहीं तब तो सोने में सुहागा समझिए....क्या राष्ट्रीय ...क्या क्षेत्रीय...सब आपको हाथोहाथ लेंगे.....बस आप अपने इलाके में इतना हैसियत जरुर रखते हों कि चुनाव तो जीत ही लें...पार्टी कोई भी हो....सबसे बड़ी बीजेपी-कांग्रेस या.....राष्ट्रीय(नाम का) स्वाभिमान पार्टी.......
अब जरा उन नेताओं की बात कीजिए...जिनके जबान बेलगाम हैं.....ख़ासकर तब जब वो ये समझने लगते हैं कि अब वो हारने वाले हैं......सबसे पहली श्रेणी में आते हैं....लालू प्रसाद और राबड़ी देवी सरीखे नेता.....मतबल समझ गए न....भैंस का दूध पीकर बुद्धि भी भैंस जैसी हो गई है.....ऐसे ऐसे शब्दों का प्रयोग करेंगे जैसे चुन चुनकर रखे हों चुनाव के लिए......उसके बाद आते हैं गुड्डू पंडित जैसे लोग.....धमकाने वाले.....अगर मे्रे भाई को वोट नहीं दिया तो मतगणना के अगले दिन का सूरज नहीं देखोगे....जैसा डॉयलॉग मारने वाले लोग.....ये लोग भूल जाते हैं कि जनता एक दिन में छट्ठी का दूथ याद करा देती है...तब इनकी जगह जेल में नज़र आती है......इसके बाद कुछ लोग ऐसे भी हैं जैसे मुंह में कुछ...बगल में कुछ.....कांग्रेस नेताओं की श्रेणी कुछ ऐसी ही है.....और कांग्रेस क्या...कई राष्ट्रीय पार्टी का दंभ भरने वाली पार्टियों की यही हाल है........इस चुनाव में एक ख़ास किस्म के नेता देखने को भी मिले...मतलब बड़बोले नेता....जनाब कब क्या बोल रहे हैं....(बकना कहें तो बेहतर होगा)...इन्हें पता ही नहीं होता....बात तो ऐसे करेंगे जैसे अमेरिका इनका गुलाम हो.....पीएम और राष्ठ्रपति इनके घर आते जाते हों.....और छोटे मोटे लोग इनकी चाकरी करते हों.....ये नेता भोली भाली जनता के सामने एक डींगबाज की तरह डींग हांकते हैं...बोलते हैं शेर जैसे...लेकिन बड़े नेताओं के पास भीगी बिल्ली बन खड़े होते हैं.....ये नेता न तो अपनी कौम के होते हैं...न समाज के...न देश के...और न ही अपने किसी अपनों के.......
लेकिन लगता है चुनाव के बहाने एक चीज जो साफ साफ नज़र आती है...वो ये है कि नेता....जाने अंजाने में एक दूसरे पर कीचड़ फेंककर ये जता देते हैं कि हम कितने गंदे हैं...हमसे कितनी दूरी बनाए रखो.......आज बस इतना ही.....ज्यादा गंदगी बदबू करने लगेगी.....

लगता है नेता किसी भी पार्टी का हो...किसी भी स्तर का हो...बस चुनाव के मौके का इंतज़ार करता है......सभी नेता ...चाहे सोनिया-राहुल हों...या फिर आडवाणी या राजनाथ...सब से सब कुछ मामलों पर पांच साल ग़जब के चुप रहेंगे...जैसे उनकी बोलती बंद हो गई हो,....लेकिन चुनाव आने पर ऐसे बोलने लगें हों जैसे जेल से छूटकर आए हों....और पहली बार बोलने का मौका मिला हो....जैसे कांग्रेस के हाथ आया है कंधार का तुरुप का पत्ता...तो बीजेपी ने निकाला स्विस बैंक में छुपा धन....कंधार मामले में कांग्रेस की चिंता बेमानी है क्योंकि देश के सौ से ज्यादा लोगों की जान के बदले तीन आतंकियों की रिहाई सही नहीं तो गलत भी नहीं कही जा सकती...खुदा न करे अगर राहुल बाबा या प्रियंका गांधी को आतंकी कैद कर लें ..तो कांग्रेस की बोलती बंद हो जाएगी....और जो आतंकी कहेंगे वो करने को मजबूर हो जाएगी कांग्रेस की सरकार और तथाकथित हो हल्ला करने वाले लोग....क्योंकि तब उनके परिवार....उनके बेटे-बेटियों की बात होगी.....कांग्रेस ये क्यों भूल जाती है कि कंधार मामले में बीजेपी सरकार ने जो किया वो समय का तकाज़ा था....जरुरत थी.....क्योंकि देश का हर शख्स भारत माता की संतान है.....और किसी भी प्रजातांत्रिक देश में नागरिकों की सुरक्षा सरकार का पहला दायित्व होता है...होना चाहिए.....ये अलग बात है कि आतंकियों से निपटने के लिए कोई कारगर रणनीति न तो कांग्रेस सरकार बना पाई न ही बीजेपी...और न ही लगता है कि किसी पार्टी के पास कोई योजना हो........
और अब बात आडवाणी की वाणी की.....स्विस बैंक में कई लाख करोड़ रुपए जमा होने की बात पर आडवाणी जी अड़े हुए हैं कि अगर एनडीए-बीजेपी की सरकार बनी तो सौ दिन के भीतर स्विस बैंक में जमा देश के काला धन को वापस लाने की पूरी कोशिश करेंगे....कोशिश हम कह रहे हैं...आडवाणी जी तो लाने के लिए कृत संकल्प लगते हैं.....चुनाव को मौसम है....आडवाणी जी बीजेपी के लौह पुरुष हैं....कह रहे हैं तो जरुर लाऐंगे....लाना भी चाहिए....देश का पैसा विदेश में क्यों रहे....देश में रहे....देश के विकास के लिए काम करे....लेकिन स्विस बैंको में जमा पैसा क्या वाकई आडवाणी जी ला पाऐंगे....या कोई भी प्रधानमंत्री ला पाएगा....कत्तई नहीं....लाना मुश्किल हो ...ऐसा नहीं लेकिन जिन लोगों का पैसा वहां जमा है...वो देश के साधारण नागरिक तो नहीं हैं....विशिष्ट हैं....होगें ही....ऐसे ऐसे-गैरे नत्थू खैरे की स्विस बैंक में एकाऊंट तो होती नहीं......और न कोई दस बीस हज़ार रुपए जमा करने के लिए स्विस बैंक का रुख़ करता है.....जिन लोगों के पैसे होंगे वो उद्योगपति भी कम ही होंगे.....क्योंकि उद्योगपति निवेश में विश्वास करता है.....स्विस बैंक में जिनके जमा पैसे होंगे....वे आला अफसर होंगे.....वो भी कम.....ज्यादा लोग तो इंडिया यानी भारत माता के सच्चे सपूत होंगे...जिन्होंने न जाने कितनी बार संविधान की शपथ खाई होगी.....भारत माता की सौगंध खाई होगी..जी हां मेरा इशारा नेताओं की तरफ ही है....और आडवाणी जी भी नेता हैं....कैटगरी एक तो सहानुभूति भी होगी ही....होनी भी चाहिए...अपने इंडिया में हर कोई अपनी बिरादरी का सहयोग करता है......आप इमानदार हैं...लेकिन बाकी के सभी हैं...मुझे शक है....और मेरा संदेह गलत नहीं.....चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनने के बाद जो सबसे पहली बात आपके दिमाग में चलेगी वो होगी अपनी सरकार को पांच साल तक बचाए रखने की....मनमोहन जी की प्राथमिकता भी यही रही....आपकी भी होगी....क्योंकि अब किसी एक पार्टी को बहुमत तो मिलने से रहा......यानी कुल मिलाकर चुनाव के बाद आप भूल जाऐंगे....कि स्विस बैंक में भारत का पैसा भी है.....होगा भी तो आपके आंकड़े कम हो जाऐंगे...जैसा कि अभी पी चिदंबरम साहब कह रहे हैं.....मनमोहन सिंह जी कह रहे हैं......लेकिन चुनाव है...जनता से कुछ न कुछ बड़ा...ठोस वादा करना है तो ये भी कह दिया......पांच साल जनता को कहां याद रहता है किस पार्टी ने क्या कहा....कब कहा....उसे तो बस दो जून रोटी की फिक्र होती है.....और चुनाव के मौसम में वैसे भी नेता ...सभी पार्टियों के इतने वादे करते हैं कि दो-चार पूरे हो गए तो समझो बहुत है.....अधिकतर तो छूट जाते हैं.....जनता भूल जाती है.....और पांच साल बाद फिर वहीं वादे...फिर वही वाणी...फिर वही जनता...फिर नई कहानी.......

चुनाव प्रचार के नाम पर
दे रहे एक दूजे को गाली
जीत नहीं पाए तो भईया
क्या करेंगे खाली
क्राइम करेंगे,लूटेंगे
चलाऐंगे बम बंदूक
आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तो
लूटेंगे सामान और संदूक
लूटेंगे संदूक,करेंगे गुंडागर्दी
जो मन में आएगा
करेंगे मन की मर्जी
वसूलेंगे जनता से
चुनाव का खर्चा
कहेंगे वोट नहीं दिए
पर अब दो सारा खर्चा
सामाजिक समस्याओं पर
करेंगे चर्चा
सांसद नहीं बनें तो क्या
बस दे दो दर्जा
कैबिनेट मंत्री या राज्य मंत्री का
और कुछ न हो तो
दे दो बस संतरी का
पढ़े लिखे तो हैं नही
जो करेंगे नौकरी
छेड़खानी करेंगे जरुर
जो मिल जाए कोई छोकरी
ऐसे ही लोग
बनते हैं भईया
आजकल नेता
झक्क सफेद कुर्ता
और सर पर फेंटा


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

मुझे आज भी याद है ..जब मैंने खुद ये ठान लिया था...सोच लिया था कि.....जिंदगी जीने के लिए अगर ढंग की नौकरी नहीं मिली तो पत्रकारिता करुंगा .....शायद यही वजह है कि मैं आज पत्रकारिता में हूं....लेकिन कभी कभार जब सोचने बैठता हूं तो लगता है कि मेरा तब का ये फैसला आज के परिप्रक्ष्य में गलत निकला....आज की पत्रकारिता में एक पत्रकार ही दूसरे का शोषण करता है.....करना चाहता है...करते हुए देखता है...कुछ बोलता नहीं...मुक स्वीकृति देता रहता है...औक कभी कभी विरोध करने पर विरोध करने वाले को दंड भी देता है...ये अलग बात है कि ऐसा वो किसी मजबूरी में करता है....लेकिन तब वो ये भूल जाता है वो भी उसी बिरादरी का सदस्य है...उसी परिवार का हिस्सा है.....जिसे पत्रकार कहते हैं...आजादी के पहले की पत्रकारिता मैंने देखी नहीं,सुनी नहीं ...बस पढ़ा भर हूं...आजादी के बाद की पत्रकारिता भी मैंने सुनी और पढ़ी है....लेकिन अस्सी के दशक के बाद मैंने जो कुछ भी पत्रकारिता के बारे में सुना...पढ़ा....उसे महसूस कर उसे अपनी जिंदगी जीने का लक्ष्य बना लिया....इसके कई कारण हैं....कुछ हमने महसूस किए.....कुछ आपने किए होंगे.....मैंने जो महसूस किया...मैं बता रहा हूं....और चाहता हूं कि आप अपने एहसास को भी जरुर रखें....ताकि लोग समझें...जानें और सिर्फ प्रबुद्ध वर्ग में शामिल होने के लिए पत्रकारिता करने की गुस्ताख़ी न करें......
मैं मानता हूं कि आज का पत्रकार बड़े पैसेवालों की गुलामी कर रहा है....बंधुआ मजदूर बनकर काम करता है....शोषित है पर मुंह नहीं खोलता...इस डर से कि नौकरी चली गई...तो घर कैसे चलेगा...दो जून की रोटी कैसे नसीब होगी....क्योंकि इस पेशे को उसने खुद अपनी मर्जी से चुना है......बस्स इस फिराक़ में रहता है कि इससे बेहतर नौकरी मिल जाए जिससे फिर एक-दो साल मजे में गुजर जाए......
दुनिया जितनी देखी...जितनी सुनी.......जितनी महसूस की...उसके अनुसार पत्रकारिता के बड़े ओहदे पर बैठा पत्रकार ही अपने से छोटे पत्रकार चूसता है.....गाली देता है....शोषण करता है...और कभी कभी छोटी - बड़ी गलतियों को लेकर उसकी नौकरी भी छीन लेता है.......क्योंकि वो भी बाध्य होता है...किसी धन्ना सेठ के हाथों....मजबूर होता है...क्योंकि उसका भी घर परिवार है....उसने भी अपने दायरे बढ़ा रखे हैं...खर्चे बढ़ा रखे हैं ....ऐसा न करने पर उसका खुद का अस्तित्व संकट में होता है...और खुद का अस्तित्व बचाने के लिए वो दूसरों का अस्तित्व मिटा देता है.......आपने भी महसूस किया होगा.....कर रहे होंगे......ऐसा अक्सर होता है.....
पत्रकार बनने के लिए समाज की समस्याओं को समझना, उसे महसूस करना , उससे जुड़ाव का अनुभव करना जरुरी है.....जरुरी होता है....क्योंकि जबतक आप जुड़ेंगे नहीं तबतक आपकी लेखनी आगे नहीं बढ़ेगी.....समाज के दूसरे वर्गों के लोगों के शोषण पर संपादकीय लिखना,विश्लेषण करना सहज भी है और सरल भी.....लेकिन अपने लोगों का शोषण देखना उतना ही कष्टकर है दुखदायी होता है.....लेकिन आज के दौर में हर पत्रकार इसे भी सहता है.....झेलता है....ये अलग बात है कि अब पत्रकारों के दो वर्ग हो गए हैं...एक वो जिनकी आमदनी लाखों में या लाख के करीब है......और दूसरे वो जो आज भी हजारों रुपया कमाने के लिए बरसात में आंधी पानी,गर्मी में लू के थपेड़े और जाड़े में हाड़ कंपा देने वाली ठंढी हवाओं को झेलते हैं.....इस मकसद के साथ नहीं कि उनका काम समाज के लिए काफी महत्वपूर्ण है बल्कि इस मकसद के साथ कि नहीं किया तो ऊपर बैठे लोग उनकी बाट लगा देंगे........उनकी नौकरी ख़तरे में पड़ जाएगी.......और फिर परिवार कैसे चलेगा........
अब पत्रकारिता आंदोलन नहीं.....पत्रकारिता मिशन नहीं......दूसरे हर प्रोफेशन की तरह एक व्यवसाय बन चुका है...पूरी तरह...कुछ लोग भले ही न मानें लेकिन ये कटू सत्य है.....सामाजिक जिम्मेदारी भूल चुका मीडिया का मकसद अब सिर्फ कमाई है.....कैसे भी.....हर कोई यही कर रहा है....क्या प्रिंट ...क्या इलेक्ट्रॉनिक....अब तो खबरें बिकती हैं......खबरें पैसे देने पर चलती हैं.......ख़बरें विज्ञापनदाताओं के खिलाफ होने पर नहीं चलतीं..........क्योंकि सबको पैसा चाहिए......ताकि बड़ी बड़ी मशीनें खरीदी जा सकें......बड़े बड़े प्रिंट ऑर्डर के लिए.......और जिसने पैसा लगाया है वो भी तो कमाने के लिए अपनी करोड़ों की संपत्ति लगा रखी है......यानी अब पत्रकारिता माने ख़बरों की फैक्ट्री.....जहां कच्ची खबरें पॉलिश की जाती हैं.....उनकी लेबलिंग और पैकेजिंग की जाती है......
यानी अब पत्रकारिता के मकसद बदल चुके हैं.....हर जगह पैसा घुस चुका है...गलत भी नहीं है.....आंदोलन से फैक्ट्री नहीं चलती ......पत्रकारिता की फैक्ट्री भी नहीं.....कमाना होगा तभी मजदूरों का भुगतान होगा...कमाई नहीं तो भुगतान ...पेमेन्ट की बात सोचना भी बेमानी है....सोचने की हिमाकत करना .....चलो अच्छा है सोच लिया..... आगे से मत सोचना.........क्योंकि जब अख़बार बिकता है.....तब पत्रकार क्यों नहीं...संपादक क्यों नहीं.....समाज में हो रहे बदलाव से वो अगल कैसे रहेगा........ये तो रहे मेरे शब्द....उम्मीद करता हूं ...आप अपने शब्द प्रतिक्रिया में सहेजेंगे......

इस बार लोकसभा चुनाव अगर किसी चीज के लिए ख़ासकर याद रखा जाएगा तो वो होगा...जूते......साहब इराकी पत्रकार ने एक जूता क्या फेंका.....लोगों को मानों एक रास्ता मिल गया.....अपना गुस्सा निकालने का.....ये अलग बात है कि इसमें पिस गए...शालीन...सभ्य राजनेता और गृहमंत्री पी चिदंबरम.....पढ़े लिखे अच्छे नेता माने जाते हैं.......हैं भी.....और उनपर जूते फेंकना निहायत गलत था.....लेकिन दिल्ली में पी चिदंबरम के बाद कुरुक्षेत्र में नवीन जिंदल पर भी फेंका गया जूता....दोनों में एक समानता है...दोनों कांग्रेस के नेता हैं..........और दोनों घटनाओं में जूता फेंकने वाला कोई अनपढ़ गंवार नहीं था...बल्कि पढ़ा लिखा...समझदार....बुद्धिजीवी था.......जिसे समाज की समस्याओं की समझ है...जिसे सामाजिक हालात ने उद्धेलित कर दिया जूता फेंकने के लिए......तो क्या आज राजनीति और राजनेताओं ने समाज को इस हाल पर लाकर खड़ा कर दिया है.......जहां अब बात जूतों से होगी.....उस जूते से.....जिसे असभ्यता की निशानी माना जाता है......और जूता फेंककर हम साबित क्या करना चाहते हैं.....पी चिदंबरम पर जूता का फेंका जाना गलत था...लेकिन जिन आरोपों को लेकर नवीन जिंदल पर जूता फेंकने की बात सामने आ रही है....अगर वो सही है...तो जूता फेंकना कतई गलत नहीं.....क्योंकि राजनीति में आना...चुनाव लड़ना....और चुनाव जीतना...एक शगल बन गया है....नेताओं का...धनाढ्यों का......और इसी शगल ने आम जनता को चुनाव में सक्रिय भागीदारी से अलग कर दिया है.......
लोग अक्सर कहते हैं नेताजी का वादा.....नेताजी का आश्वासन पूरा होने...या करने के लिए होता ही नहीं.....अगर ये सही है तो ऐसे नेता तो जूते के हकदार हैं ही.....करोड़ों रुपए लगाकर चुनाव जीतने की इच्छा रखने वाले ऐसे ही नेताओं को जूते मिलने ही चाहिए......यही नहीं....उन नेताओं को भी...जो जीतने के बाद अपने चुनाव क्षेत्र में आते ही नहीं....आते भी हैं तो आम वोटरों के साथ अछूत की तरह व्यवहार करते हैं.....और उन नेताओं को भी ....जो अपनी टेंट से एक पैसा खर्च करना तो दूर....क्षेत्र के विकास के लिए मिलने वाले पैसे का भी अधिकाधिक स्व विकास के लिए खर्च करते हैं....या खर्च करते ही नहीं.....और उन्हें भी जो नेतागिरी शौकिया करते हैं....चुनाव शौकिया लड़ते हैं.....जनता की कृपा से जीत जाते हैं......और फिर पांच साल के लिए उनकी याददाश्त ख़त्म हो जाती है.......मेरे हिसाब से ये उनके लिए भी मुफीद हो सकता है....जिन्हें जनता के फैसले का भरोसा नहीं होता.....जो किसी भी कीमत में चुनाव जीतने के लिए एक नहीं दो दो जगहों से अपना पर्चा भरते हैं....और अगर दोनों जगहों से जीत गए.....तो फिर अपने स्वार्थ के लिए एक जगह से इस्तीफा दे देते हैं.......
लोग कुछ भी कहें.....टीवी चैनल ...अखबारों के बुद्धिजीवी कुछ भी कहें लेकिन जूते में काफी दम है.....लेकिन ये जूता उन लोगों को भी मिलनी चाहिए.....जो जनता का अपमान करते हैं.....वोट न देने पर मतगणना के अगले दिन का सुरज नहीं देखने देने की धमकी देते हैं.......जनप्रतिनिधि कहलाते हैं....लेकिन खटमल की तरह जनता का लहू चूसते हैं......जनता की सुरक्षा जाए भाड़ में खुद आठ-आठ दस -दस मशीनगन वाले सुरक्षाकर्मियों को लेकर चलते हैं......
जूते को परंपरा नहीं बनानी चाहिए...लेकिन अगर मौका मिले तो चलाने से परहेज भी नहीं करना चाहिए....क्योंकि ये वो हथियार से जिससे गंदगी की सफाई भी हो सकती है.....तथाकथित नेता चुनाव लड़ने से पहले.....या जनता के बारे में भला-बुरा कहने से पहले सोचेंगे.....कि अगर अच्छा नहीं किया तो जूते पड़ेंगे........

कभी स्कूलों को शिक्षा का मंदिर कहा जाता था....लेकिन लगता है कभी कहा जाता होगा....आज हजार...दो हज़ार...तीन हजार रुपए मासिक शुल्क लेने वाले इन स्कूलों को मंदिर कहें तो कैसे....ये मंदिर लगते ही नहीं....क्योंकि मंदिर में वाग्देवी नहीं ...ज्ञान देने की शक्ति नहीं....ज्ञान पाने की उत्सुकता नहीं.....सुविधाओं का अंबार है.....एसी तक.......क्लासरुम से बस तक एसी.....बेमतलब..सिर्फ पैसे ऐंठने के चोंचले.....अभिभावक रुपी ग्राहकों को आकर्षित करने के तरीके.....उन अभिभावकों को जो रहते मिड्ल क्लास में हैं और दिखावा हाई क्लास की करते हैं....या करने की कोशिश करते हैं......भले खुद मां-बाप अंग्रेजी न बोल पाएं....लेकिन बेटे-बेटियों को अंग्रेजी सिखाने की ललक...उन्हें मजबूर कर देती है.....या वो कहीं न कहीं खुद को मजबूर समझने लगते हैं.....और जरा इन बेशर्म स्कूलों को देखिए.....एक स्कूल में दाखिला एक बार ही होता है....लेकिन जनाव ये मॉडर्न जमाना है....आधुनिक सोच है.....और आधुनिकतम ट्रेंड कह लीजिए.....हर साल एक ही स्कूल में बच्चे का नया दाखिला होता है.....वही जिसे एडमिशन कहते हैं.....और हर साल उसी स्कूल में नए एडमिशन की फीस होती है पांच से दस हज़ार रुपए......मां-बाप मजबूर हैं...नहीं देंगे तो जाऐंगे कहां......और सरकार और प्रशासन अंधी....क्योंकि सरकार और राजनीतिक दलों को चंदा मिलता है......प्रशासन को स्पेशल कोटे से दो-चार नए एडमिशन कराने की छूट.....पिसता कौन है...आम आदमी.........मिड्ल क्लास......इन स्कूल कहे जाने वाले शिक्षा की दुकानों पर.......जहां शिक्षा भी बिकती है....नोटबुक्स भी...किताबें भी....ड्रेस भी......
और अब बात सरकार की.....देश में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए ...हर बच्चा...हर नागरिक को शिक्षित करने के नाम पर बनती है करोड़ों की योजनाएं.....करोड़ों नहीं जनाब...अरबों रुपए की बात कीजिए.....लेकिन सरकार को इन धन्ना सेठ स्कूलों पर नज़र नहीं पड़ती...पड़ भी नहीं सकती.........क्योंकि नज़र है.....देखना चाहे तभी तो पड़ेगी.....अगर सरकार नज़र डाले तो इन कान्वेंट कहे जाने वाले स्कूलों का या तो अधिग्रहण कर ले.....या इनकी फीस की राशि तय कर दे कि बस्स ...इससे ज्यादा नहीं ले सकते...लोगे ...तो स्कूल पर से नियंत्रण खत्म......सरकार स्कूल का अधिग्रहण कर लेगी......लेकिन नहीं सरकार.....विधायक,सांसद.....और जैसा मैंने पहले कहा ये बड़े बड़े अफसरान.....इस ओर कोई तवज्जो ही नहीं देते.....चुनाव में वोट लेंगे....लेकिन इस ओर कोई बात नहीं करेंगे....अगर कर भी लिया.....तो कुछ करेंगे नहीं....क्योंकि इनका धंधा ही कुछ ऐसा है.......लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या इन अँग्रेजीदां कहे जाने वाले मॉडर्न स्कूलों की फीस देशभर में एक नहीं हो सकती.....शिक्षा ...संविधान के अनुसार मौलिक अधिकार है.....और इस मौलिक अधिकार से सरकार अपनी आंख कैसे मूंद सकती है........अगर मूंद रही है....या आंखें बंद रखना चाहती है तो फिर वो सरकार कैसी.....उसका तो नियंत्रण ही नहीं रहा......

एक विधायक लोकतंत्र के सबसे बड़े कहे जाने वाले इस पर्व के मौके पर खूनखराबा की धमकियां दे....वोट न देने पर मतदान के अगले दिन का सुरज न देखने की खुलेआम धमकी दे..... .वो भी चुनाव आयोग की सख़्ती के नाम पर....और फिर अधिकारी ये बयान दे कि उन्हें पूरे मामले की जानकारी नहीं है... मामले की जांच के बाद जो भी होगा...कार्रवाई की जाएगी.....लोकतंत्र का मजाक नहीं तो और क्या है....टीवी चैनलों पर उस विधायक की करतूत एक बार नहीं कई बार दिखाई गई.....करोड़ों लोगों (प्रजा) ने देखा....लेकिन आयोग जबतक नहीं देखे...अधिकारी जबतक नहीं देखें तबतक किसी पर कोई कार्रवाई कैसे कर सकते हैं....और वो जब देखना चाहेंगे तभी तो देखेंगे.....क्योंकि उन्हें उन्हीं राजनेताओं के बीच रहकर काम करना है.....उनके तलुए चाटने हैं.....चुनाव का मौसम है....चुनाव आयोग साथ है.....लेकिन चुनाव के बाद वही विधायक...वही एमपी उनके माई बाप होते हैं.....इसलिए बेवजह उनसे कोई दुश्मनी क्यों मोल ले.....जी हां...यही वजह है कि आज लोकतंत्र कमजोर हो रहा है.....और गुंडा तंत्र मजबूत....जब अधिकारी डरपोक हो जाएं...कायर हो जाएं तब वे सबसे पहले अपनी रक्षा की सोचता है.....जनता की कभी नहीं....कभी सोचता भी है तो बस दिखावे के लिए......यूपी के इस विधायक की करतूत.........तकरीबन सभी खबरिया चैनलों ने दिखाई.....एक एक शब्द लोकतंत्र यानी जम्हूरियत के कपड़े उतार रहा था...नंगा कर रहा था.....बलात्कार कर रहा था....लेकिन चुनाव आयोग को इससे क्या ...जम्हूरियत जाए भाड़ में.....तेल लेने....उसका काम तो बस चुनाव करवाना है.....आचार संहिता उल्लंघन के नाम पर नोटिस जारी करना है.....मामला दर्ज़ कराना है....अफसरों को चेतावनी देना है......और ये सब तभी तक हो रहा है जबतक जनता जागती नहीं.....उसका अहम जागता नहीं...जिस दिन जग जाएगा.....ये अफसर ...ये विधायक दुम दमाकर भागते दिखाई देंगे.......वर्ना मजाल कि एक अदना सा विधायक ...जो जनता की भलाई के लिए चुना जाता है ..खुलेआम एक मंच से जनता को ही धमकी दे....जान से मारने की धमकी.....और प्रशासन नपुंसक की तरह देखता रहे......ऐ दरोगा जी....जरा इधर आईए.....वो दारोगा भी क्या करे.....जब एसपी -डीएम सरीखे बड़े अफसर एमएलए-एमपी के पास अपने ट्रांसफर पोस्टिंग की जुगत लगाऐंगे तब बेचारके दारोगा की क्या औकात रह जाएगी.......वो तो दारोगा है इसलिए कि उसके वदन पर वर्दी है....टेंट में रिवॉल्वर है.....न हो तो एक (कोई संबोधन न देना ही बेहतर है) ......के बराबर है......तो ये है प्रजातंत्र की हकीकत...गांधी नेहरु के सपनों की हकीकत.....आप भी देखिए...हम भी देखेंगे....कि प्रशासन....चुनाव आयोग उस विधायक के खिलाफ क्या कार्रवाई करता है.....अव्वल तो सबूत ही नहीं मिलेगा.....मेरा दावा है मिलेगा ही नहीं .....अगर मिला भी तो तकनीकी पत्राचार...सवाल जवाब के चक्कर में ...नोटिस-जवाब ...फिर नोटिस ....यानी ले देकर ढाक के तीन पात.....नेताजी चकाचक...जनता....क्यों दुश्मनी ले जब सरकार उनकी ...प्रशासन उनका.....दारोगा उनका.....बंदूक उनकी....निशाना उनका.......सबूत जाए तेल लेने.......और लोकतंत्र ......किसी पोखरे में गिड़गिड़ा रहा है....

मौसम चुनाव का है....तो हमने सोचा क्यों न कुछ बाते चुनाव की हो जाय....आखिर हजारों करोड़ ऱुपए का खर्च जो है....सरकार बनने बिगड़ने की बात जो है.....चुनाव आयोग की घोषणा के बाद नेता मांद से निकलकर शेर की तरह दहाड़ने लगते हैं.....ये अलग बात है कि हर नेता शेर नहीं होता.....जो दहाड़ता नहीं वो सबकी खेल बिगाड़ने की सोचने लगता है.....ताकि उसकी अहमियत बरकार रहे.....लोग ये समझें कि वो भी नेता है....ये अलग बात है वो हकीकत में नेता नहीं होता...नेतागिरी से उसका दूर दूर का कोई वास्ता नहीं होता.....इसी तरह चुनाव की घोषणा के साथ शुरु हो जाती है मीडिया की बहस......बात अख़बार की करें या इलेक्ट्रॉनिक चैनल की......बात तो ऐसे करेंगे जैसे ये न हो तो मुद्दे न बनें.......किसी को पता ही न चले कि फलां लोकसभा सीट से कौन गंभीर उम्मीदवार है और कौन अगंभीर......अब अख़बारों को कागज काला करने की मजबूरी है तो इलेक्ट्रॉनिक चैनलों को अपना टाईम स्लॉट भरने की......हकीकत में सभी अपनी अपनी मजबूरी के मारे हैं...कुछ करना है तो चलो कुछ कर लें.....क्योंकि वोट डालने के लिए कतार में खड़ा होने वाला वोटर इनकी बातें गंभीरता से नहीं सुनता और जो इनकी बातें गंभीरता से सुनता है वो लंबी कतारों में खड़ा होकर वोट नहीं डालता......वोट का दिन यानी पिकनिक....सड़कें सूनी,गलियां सूनी....चलो क्रिकेट हो जाय...शाम तक जाकर देख आऐंगे कि बूथ पर कतार लंबी है या छोटी .......लंबी हुई तो घर आकर समोसे पकौड़े बनवाकर लुत्फ उठाया जाएगा.....छोटी हुई तो डेमोक्रेसी के नाम एक एहसान कर आऐंगे......गर्व से कहने के लिए कि हमने भी वोट दिया .......और खुदा न करे....एकाध गोलियां चलने की आवाज आए.....या बम धमाके का शोर सुनाई पड़ जाए...तो डेमोक्रेसी जाए भाड़ में......न तो मनमोहन सिंह हमारे मुहल्ले में आकर हमारी ख़बर लेंगे और न सोनिया को इतनी फूर्सत है ये जानने की ......अमित ने वोट क्यों नहीं दिया.....सुमित ने बीजेपी को क्यों दिया.....और रचित ने बीएसपी को .......वैसे भी चुनाव लड़ने के लिए किसी पढ़ाई लिखाई की जरुरत तो है नहीं.....फिर पढ़-लिखकर इस बात पर माथापच्ची क्यों करें कि कौन नेता अच्छा है.....कौन बुरा....किसकी सरकार अच्छी होगी....किसकी बुरी.....अब ये पढ़े लिखे मनमोहन ने ही क्या कर लिया.......कहते हैं विदेश से डिग्री लिए हुए हैं......कागज़ पर महंगाई कम हो रही है लेकिन जरा इनको कौन बताए कि ये गली का शनिचरा भी बता देगा कि महंगाई कितनी कम हुई है......इकोनॉमिक्स पढ़ने-पढ़ने के ढकोसले हैं बस्स......अब बीजेपी को ही ले लीजिए.......कुछ पता ही नहीं चलता कि इसके मुंह में राम है या बगल में.....कभी राम राम...तो कभी राम को राम.....एक रास्ते पर कोई चले तब तो पता चले......कुछ यही हाल बहन जी की भी है......शुरु में सत्ता सुख भोगा दल्त के नाम पर लेकिन जब लगा कि दलित बहुत दिन तक मूर्ख़ नहीं बन सकता तो सरक लिए सर्व धर्म समभाव की तरफ......अब इसके बाद किधर को जाऐंगी......एक बार हारने के बाद सोचेंगी......लाल झंडा वाले तो आजतक समझ नहीं पाए कि करें तो क्या करें.....ये अलग बात है कि एक दो राज्यों को छोड़ दें तो वोटरों ने उनसे लाल सलाम..... वो भी दूर से कर रखा है.......बाकी का हाल भी कुछ ऐसा ही है......कभी लालू को कच्चर दुश्मन मानने वाले रामविलास जब लालू से गले मिले तो ऐसा लगा कि जैसे पिछले जनम के बिछुड़ा भाई मिल गया हो.....लगे हाथ अमर अकबर एंतनी की तरह मुलायम भी साथ हो लिए.....इसीलिए आम आदमी चुनाव से दूर हो रहा है......भईया उस एलेक्शन में दूर दूर.....इस एलेक्शन में पास पास....क्यों...सब मिलकर दो पार्टी बना लो ......चुनाव का स्साला टंटा ही खत्म....पांच साल तुम लूटो ....पांच साल हम लूटें......क्योंकि लूटने के अलावा और तो कोई काम है नहीं ...सरकार मतलब लूट.....लूट सकै सो लूट.....राम राम.....

देखो फिर आया मौसम चुनाव का
सपने बांटेंगे नेता
देंगे आश्वासन
बड़े बड़े काम का
देखो फिर आया मौसम चुनाव का
पांच साल तक होश नहीं था
जनता याद नहीं आई थी
अब करेंगे सुबह नाश्ता
साथ खाना शाम का
देखो फिर आया मौसम चुनाव का
उड़न खटोले पर आऐंगे
साथ कई हीरो लाऐंगे
बड़े-बड़े दाम का
देखो फिर आया मौसम चुनाव का
धुआं उड़ेगा लाखों का
मंच सजेगा,गीत बजेंगे
वोट मांगेंगे लेकिन हराम का
देखो फिर आया मौसम चुनाव का

पर्व किस बात का
गर्व किस बात का
चुनना जब उन्हें जो
जो कुछ दे नहीं सकते
ले सकते हैं हमारा वोट
चूसने को हमारा ही खून

इतना तामझाम क्यों
कहने को काम क्यों
चुनना जब उनको है
जो जनता के नाम पर
जनता से लूटकर
अपना पॉकेट भरें

क्यों करें बर्बाद हम
रोटियों का स्वाद हम
वोट देने के लिए
कतार में खड़े रहे
अपराधियों को वोट दें?
आओ एक नोट दें
और उनसे ये कहें
मत लड़ो तुम चुनाव
घर बैठो,रोटी खाओ

शिक्षित हैं बेरोजगार
बनाओ उनको उम्मीदवार
जिसकी एक सोच हो
तब मनाऐंगें सभी
मिलकर चुनाव पर्व

लेकिन तबतक भला
पर्व किस बात का
गर्व किस बात का
चुनना जब उन्हें जो
जो कुछ दे नहीं सकते
ले सकते हैं हमारा वोट
चूसने को हमारा ही खून

उस दिन में बस के इंतज़ार में बस अड्डे पर खड़ा था.....तभी दिखने में हट्टा कट्टा वो शख़्स एक बुजूर्ग सी दिखने वाली महिला के साथ सामने आ खड़ा हुआ....और कहने लगा...भाई साहब...घर जा रहा था...सारा सामान चोरी हो गया.....एक पचास रूपए दे दीजिए.....थोड़ी मदद हो जाएगी....भगवान आपकी बहुत मदद करेगा.....मैंने अनमने ढंग से अनसुना कर दिया.....दूसरे तीसरे बार वही आवाज सुनाई पड़ी तो दिल पसीज गया.....सोचने लगा...लगता है सचमुच मुसीबत में है ...अन्तर्मन ने कहा तुम्हें मदद करनी चाहिए...हाथ अनायास पॉकेट की तरफ बढ़े...एक दस का नोट निकाला और बढ़ा दिया........उसने और रूपयों की मांग की...पर मैंने मना कर दिया......देना चाहता था कि दे दूं पचास रूपए...किसी और से मांगने की बेचारे को नौबत न आए....पर ऐसा कई बार सुन रखा था कि हट्टा कट्टा से दिखने वाले लोग भी बहानेबाजी कर भीख मांगते हैं......ज्यादा देने की हिम्मत नहीं हुई......बस में सोचता रहा कि क्यों नहीं उसे पचास रूपए दे दिए.......बात आई गई हो गई...मैं भी भूल सा गया ...उस वाकये को ...लेकिन उस दिन भी बस से ऑफिस जा रहा था.......ग़ाजीपुर बाईपास के करीब एक बस स्टॉप पर मैंने देखा तो मुझे सहसा यकीन न हुआ.....मुझे ठीक से याद है वही शख़्स था....जिसने सारा सामान चोरी हो जाने की बात कह मुझसे पचास रूपए मांगे थे.....एक बच्ची और एक महिला के साथ मिलकर इकट्ठा पैसे के लिए लड़ाई कर रहा था......मैं सोच में पड़ गया कि आख़िर किसे जरूरतमंद समझा जाए........

रात को घर लौटते समय बस छूट गई ...मैं ऑटो से उतर ही रहा था कि बस आई और चली गई....मन खट्टा हो गया...आज फिर घर पहुंचने में देर हो जाएगी...बिटिया रोज कहती है जल्दी आने के लिए...आज मौका था लेकिन कमबख़्त...बस का क्या करें......तभी करीब एक ऑटो आकर रुका.....मोहननगर....मोहन नगर.....मेरा स्टॉप तो रास्ते में ही पड़ता है....पूछता हूं...ये सोचकर मैंने ऑटो वाले से पूछा भैया वसुंधरा जाओगे क्या.....हां जाऊंगा पर दस रूपए लगेगें....चलो ...इतना कहकर मैं ऑटो में बैठ गया...एक दो और सवारी बैठ गए....ऑटो चल पड़ी...रास्ते में ऑटो चालक और सवारियों के लिए आवाज़ लगाता जा रहा था.......खोड़ा के पास एक सवारी....जो दिखने में सिक्योरिटी गार्ड सा लग रहा था...ने हाथ दिया....डाबर चलोगे क्या...हां....कितना लोगे....अनमने ढंग से ऑटो चालक ने कहा...जितना देना हो दे देना.....अब ऑटो पुरी रफ़्तार से चल रही थी...घर पहुंचने की मुझे भी जल्दी थी...खुश था मैं....देखते ही देखते डाबर आ गया....एक सवारी उतर गया और उसने तीन रूपए ऑटो ड्राइवर की ओर बढ़ाया....ये क्या है....तीन रूपए...जवाब मिला.....क्यों कम से कम पांच तो दे...बस नहीं है ऑटो में लाया हूं....भइया कहो तो एक रुपया और दे दूं........इससे ज्यादा नहीं दूंगा......इतना कहकर उस सिक्योरिटी गार्ड सा दिखने वाले गरीब सवारी ने दो रूपए का सिक्का ऑटो चालक की ओर बढ़ा दिया.....लेकिन ये क्या ऑटो चालक तो चल पड़ा बिना एक रूपया वापस किए....लेकिन तभी वो सवारी बीच सड़क पर ऑटो के सामने खड़ा हो गया.....अरे मेहनत पसीने की कमाई है...एक रूपइय्या लेकर भाग रहे हो दे दो....नहीं तो ठीक नहीं होगा....ऑटो वाला देने को तैयार नहीं था....और सवारी लेने पर आमादा....जान दे दूंगा लेकिन एक रूपया लेकर रहुंगा....दिनभर जानवर की तरह खड़ा रहता हूं तब रूपल्ली मिलती है....ऐसे जाने नहीं दूंगा....किसी पैसेंजर ने कहा ...पागल है...दे दो....आख़िरकार ऑटोवाले ने एक रूपए का सिक्का उसकी ओर फेंका...और चल पड़ा....मैं सोचने लगा...वो पागल कतई नहीं था....मेहनतकश था...जिसे एक एक रूपए की कीमत मालूम है......इसी सोच विचार में मेरा स्टॉप आ गया....और मैं उतर गया.....