बचपन के दिन भी भी क्या दिन थे....मस्ती के दिन...न कोई फिक्र...न कोई चिन्ता...चाहे जो हो जाय....स्कूल से घर लौटते ही जैसे तैसे....जो भी मिले खाओ और भागो खेलने के लिए.....पीचवीं...छठी कक्षा में हमलोग फुटबॉल भी खेलते थे और वो भी गांव से सटे एक बड़े से मैदान पर....जिसके सटे था कब्रिस्तान....और एक कोने पर सूर्यमंदिर और एक तालाब.....स्कूल से लौटते वक्त रास्ते में ही पूरी योजना बन जाती थी....कि आज मैदान में कौन सा खेल खेला जाएगा.....उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ था....रास्ते में तय हो गया था आज से छोटे मोटे खेल हमलोग नहीं खेलेंगे....होगा तो फुटबॉल ही.....और सभी अपने अपने घर से एक -एक रुपया लेकर आएगा....जो नहीं लाएगा...उसे खेलने नहीं देंगे.....घर आते ही सबसे पहले हाथ मुंह धोकर खाना खाया....और फिर बहाने तलाशने लगा एक रुपए के लिए....तब एक रुपया बड़ी चीज होती थी....खासकर गांव -देहात में....मैंने अपने छोटे से दिमाग के हर कोने की बत्ती जलाई...कि आखिर कहां से मिल सकता है एक रुपया.....पापा के पैंट में....मां के पर्स में...दादाजी के कुरते में....दादी के बक्से में.....बड़ी मां के...नहीं नहीं...उनके पैसे नहीं लूंगा.....सबसे पहले मैं सोने का बहाना कर मां के कमरे में पहुंचा...वहां पापा की पैंट नहीं दिखी....लगता है आज ही धोबन आई थी.....मां का पर्स का मिलना भी मुश्किल ही है.....अचानक एक ख्याल आया....मां की आदत जहां तहां रुपए पैसे रखने की है...खासकर आलमारी पर बिछे अखबारों के नीचे.....लेकिन डर थै कि कोई देख न ले......सोने का बहाना करने पर दादी आई...ये पूछने कि क्या हुआ रोज तो आते ही खेलने भाग जाता था....कहीं किसी की नजर तो नहीं लग गई....उन्हें क्या पता कि हमारी नजर कहां थी....खैर दादी गईं...और मैं फटाफट उठकर ढूंढने लगा एक रुपए........और मानो अंधे को मिल गई आंख.....एक क्या यहां तो कई रुपए रखे हैं...वो भी मुड़े तुड़े...लगता है मां भी रखकर भूल गई है.....मैंने झट से एक रुपया लिया और ये गया कि वो गया...हो गया रफूचक्कर...खेल के मैदान पर पहुंचने पर थोड़ी देर हो गई थी...पर मैं पहुंच गया....वहां पहले से कई लड़के पैसा जमा कर हिसाब किताब कर रहे थे.....कई रुपया नहीं लाने पर मुंह लटकाए खड़े थे....कुछ अगले दिन देने का वादा कर रहे थे...तभी एक की नजर मुझ पर पड़ी और छुटते ही उसने पूछा.....और तुम लाए क्या एक रुपया.....मैंने सीना तानकर कहा...और क्या नहीं लाया....ये ले एक रुपया......सभी ने हिसाब जोड़कर बताया...चलो इसे मिलाकर हो गए...उन्नीस रुपए.....अंधेरा घिरने लगा था....अभी तक पैसे ही नहीं जुट पाए...तो फुटबॉल कहां से आता....और जब फुटबॉल ही नहीं तो कोई क्या खेले.......फिर मंडली की बैठक हुई.....बैठक में तय हुआ कि मार्केट चलकर देखते हैं कि एक अच्छा सा फुटबॉल कितने में आएगा.....ये भी तय हुआ कि सभी मार्केट नहीं जाऐंगे....दो तीन लोग जाएं और अगर मिल जाता है तो फटाफट खरीद कर ले आएं...खेल न सही थोड़ा बहुत प्रैक्टिस ही हो जाए......राजू, अनिल और जवाहर तीनों बाजार चले गए.....बाकी मैदान में गप्पे हांकने लगे...शाम से रात हो गई....लेकिन चांदनी रात थी....रौशनी में रात में भी सबकुछ दुख रहा था......और हमलोग बैठे ही रहे.....टाइम का कोई अंदाजा नहीं था क्योंकि किसी के पास घड़ी नहीं थी...और न ही आज की तरह मोबाइल फोन.....खैर थोड़े और इंतजार के बाद तीनों आए तो उनके हाथ में फूटबॉल थी.....जिसे बाइस रुपए में खरीदा गया था....यानी तीन रुपए उधार पर....फुटबॉल आने की खुशी में हम सब ये भूल गए कि रात हो चुकी है......और फिर चांदनी रात में शुरु हो गई फुटबॉल की प्रैक्टिस...हम कितनी देर खेले ये तो पता नहीं...लेकिन अचानक हमलोगों को लगा कि बहुत देर हो चुकी है.....फिर धीरे धीरे हमलोग दबे पांव अपने अपने घर की ओर रवाना हो गए.....आगे बताने की जरुरत नहीं कि छोटे से गांव में जब कोई बच्चा खेल कूदकर रात के नौ बजे घर पहुंचता है तो उसके साथ कितना अच्छा (?) बर्ताव होता है...वही सबकुछ हमारे साथ हुआ.....मां बीचबचाव न करती तो शायद हमारा कचूमर बनना तय था.....
(शेष अगले अंक में ......)

1 टिप्पणियाँ:

अपना कच्चा चिट्ठा बड़ी साफगोई से खोला। इस मासूम गुनाह पर कहने के लिए शब्द नहीं। अच्छा चित्र उकेरा है।