वो पतली सी पगडंडी
जिसके किनारे बहती थी पईन
जिसमें पानी
तो बस बरसात में दिखती थी
दूसरे मौसमों में
पानी ऐसे बहती थी
जैसे किसी के घर के नाली का पानी

वो पतली सी पगडंडी
जिसके किनारे
न जाने कितने फलों के थे
पेड़
कदम्ब
बेर
आम
और अमरूद
खाते न अघाते थे
लोग
हम बच्चे भी
उन पगडंडियों ने
हमारा बचपन ही देखा था
जवानी शहरों ने देखी

वो पतली सी पगडंडी
जिसके किनारे होती थी
कंटीली झाड़ियां
निकलते थे जिससे
बचकर
लेकिन कई बार
झाड़ियों ने भी बचाया हमें था

जिसपर बरसात में
होती थी फिसलन
गिरते-फिसलते
बचते बचाते
घर पहुंच जाते

वो पतली सी पगडंडी

याद है
रहेगी
ताउम्र

3 टिप्पणियाँ:

उन पगडंडियों ने
हमारा बचपन ही देखा था
जवानी शहरों ने देखी
एकदम सही, पर हमारे मन में ये गाँव की गलियाँ हमेशा जीवित रहती हैं ।

मतलब आप सभी लोगों ने ठान रखी है कि मुझे घर भेज कर रहोगे...?

आपकी पतली पंगडंडी ने हमारी छोटी जिंदगी की याद दिला दी। वैसे कविता बहुत अच्छी है। आपमें एक अच्छे कवि के सारे गुण मौजूद हैं। सचमुच मुझे उम्मीद नहीं थी कि आप इतनी अच्छी कविता भी लिख सकते हैं। इस कविता ने साफ कर दिया कि आपके अंदर भी भावनाओं का अंबार है, जो बाहर निकलने के लिए बेचैन है। बहरहाल एक अच्छी रचना से रू-ब-रू कराने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद! उम्मीद करते हैं कि इसी तरह आगे भी हमें आपकी अच्छी और मौलिक रचनाएं पढ़ने को मिलेंगी।-अजय शेखर प्रकाश