इस बार लोकसभा चुनाव अगर किसी चीज के लिए ख़ासकर याद रखा जाएगा तो वो होगा...जूते......साहब इराकी पत्रकार ने एक जूता क्या फेंका.....लोगों को मानों एक रास्ता मिल गया.....अपना गुस्सा निकालने का.....ये अलग बात है कि इसमें पिस गए...शालीन...सभ्य राजनेता और गृहमंत्री पी चिदंबरम.....पढ़े लिखे अच्छे नेता माने जाते हैं.......हैं भी.....और उनपर जूते फेंकना निहायत गलत था.....लेकिन दिल्ली में पी चिदंबरम के बाद कुरुक्षेत्र में नवीन जिंदल पर भी फेंका गया जूता....दोनों में एक समानता है...दोनों कांग्रेस के नेता हैं..........और दोनों घटनाओं में जूता फेंकने वाला कोई अनपढ़ गंवार नहीं था...बल्कि पढ़ा लिखा...समझदार....बुद्धिजीवी था.......जिसे समाज की समस्याओं की समझ है...जिसे सामाजिक हालात ने उद्धेलित कर दिया जूता फेंकने के लिए......तो क्या आज राजनीति और राजनेताओं ने समाज को इस हाल पर लाकर खड़ा कर दिया है.......जहां अब बात जूतों से होगी.....उस जूते से.....जिसे असभ्यता की निशानी माना जाता है......और जूता फेंककर हम साबित क्या करना चाहते हैं.....पी चिदंबरम पर जूता का फेंका जाना गलत था...लेकिन जिन आरोपों को लेकर नवीन जिंदल पर जूता फेंकने की बात सामने आ रही है....अगर वो सही है...तो जूता फेंकना कतई गलत नहीं.....क्योंकि राजनीति में आना...चुनाव लड़ना....और चुनाव जीतना...एक शगल बन गया है....नेताओं का...धनाढ्यों का......और इसी शगल ने आम जनता को चुनाव में सक्रिय भागीदारी से अलग कर दिया है.......
लोग अक्सर कहते हैं नेताजी का वादा.....नेताजी का आश्वासन पूरा होने...या करने के लिए होता ही नहीं.....अगर ये सही है तो ऐसे नेता तो जूते के हकदार हैं ही.....करोड़ों रुपए लगाकर चुनाव जीतने की इच्छा रखने वाले ऐसे ही नेताओं को जूते मिलने ही चाहिए......यही नहीं....उन नेताओं को भी...जो जीतने के बाद अपने चुनाव क्षेत्र में आते ही नहीं....आते भी हैं तो आम वोटरों के साथ अछूत की तरह व्यवहार करते हैं.....और उन नेताओं को भी ....जो अपनी टेंट से एक पैसा खर्च करना तो दूर....क्षेत्र के विकास के लिए मिलने वाले पैसे का भी अधिकाधिक स्व विकास के लिए खर्च करते हैं....या खर्च करते ही नहीं.....और उन्हें भी जो नेतागिरी शौकिया करते हैं....चुनाव शौकिया लड़ते हैं.....जनता की कृपा से जीत जाते हैं......और फिर पांच साल के लिए उनकी याददाश्त ख़त्म हो जाती है.......मेरे हिसाब से ये उनके लिए भी मुफीद हो सकता है....जिन्हें जनता के फैसले का भरोसा नहीं होता.....जो किसी भी कीमत में चुनाव जीतने के लिए एक नहीं दो दो जगहों से अपना पर्चा भरते हैं....और अगर दोनों जगहों से जीत गए.....तो फिर अपने स्वार्थ के लिए एक जगह से इस्तीफा दे देते हैं.......
लोग कुछ भी कहें.....टीवी चैनल ...अखबारों के बुद्धिजीवी कुछ भी कहें लेकिन जूते में काफी दम है.....लेकिन ये जूता उन लोगों को भी मिलनी चाहिए.....जो जनता का अपमान करते हैं.....वोट न देने पर मतगणना के अगले दिन का सुरज नहीं देखने देने की धमकी देते हैं.......जनप्रतिनिधि कहलाते हैं....लेकिन खटमल की तरह जनता का लहू चूसते हैं......जनता की सुरक्षा जाए भाड़ में खुद आठ-आठ दस -दस मशीनगन वाले सुरक्षाकर्मियों को लेकर चलते हैं......
जूते को परंपरा नहीं बनानी चाहिए...लेकिन अगर मौका मिले तो चलाने से परहेज भी नहीं करना चाहिए....क्योंकि ये वो हथियार से जिससे गंदगी की सफाई भी हो सकती है.....तथाकथित नेता चुनाव लड़ने से पहले.....या जनता के बारे में भला-बुरा कहने से पहले सोचेंगे.....कि अगर अच्छा नहीं किया तो जूते पड़ेंगे........

2 टिप्पणियाँ:

ये बात तो आपने तो बिलकुल सही कही कि जूता वहीं फेंक सकता है जो ये जानता हो कि चाहे जूता लगे या न लगे मगर उसकी चोट घातक होनी चाहिए और वो असर दिखाये..चाहे बात करें मुंतजिर अल जैदी कि या जरनैल सिंह की या जिंदल पर जूता फैंकने वाले राजपाल की..एक बात तो साफ है कि सभी पढ़े लिखे हैं और राजनीति की ओछी हरकतों से पूरी तरह टूट चुके हैं...जहां जूता फैंकने वालों में दो पत्रकार शामिल थे वही एक प्रधानाचार्य भी शामिल थे..जिससे साफ हो रहा है कि अब हमारे समाज के पढ़े लिखे लोगों के दिमाग में एक बात तो साफ हो रही है कि अगर कपूत को जूत न पड़े तो वो सपूत नहीं बन पाता इसिलिए जूतम पैजार तो करना ही पड़ेगा...

ये सही है तो ऐसे नेता तो जूते के हकदार हैं
सही कहा आपने.......