बस में भीड़ रोज की तरह थी....हर स्टॉप पर दो चार नए पैंसेंजर चढ़ते ...तो एक दो उतर रहे थे.....तभी कंडक्टर की आवाज़ सुनाई दी...टिकिट ...टिकिट ले लो....हां भईया कहां जाना है......कासना...और युवक ने दस रूपए का नोट कंडक्टर की ओर बढ़ा दिया...पांच रूपए और दो...पंद्रह रूपिया किराया है......युवक ने फुसफुसाते हुए कहा...रख लो...इतने में ही जाता हूं......जाता हूं मतलब...पांच और निकाल...कंडक्टर ने कड़कती आवाज़ में कहा.....अबे ..पांच नहीं देता...जो करना है कर लो....ज्यादा बोला...तो दूंगा एक जमा के...मादर....कंडक्टर सहम कर आगे बढ़ गया......बस अपनी चाल में रुक रुककर चली जा रही थी..........दो तीन लोगों को टिकट देने के बाद कंडक्टर एक बुजूर्ग यात्री के पास पहुंचा....बाबा...कहां जाना है.......ग्रेटर नोएडा.....जवाब मिला...और सात ही थरथराते हाथ...जिसमें पैसे थे.....ये क्या है.....पांच और.....क्यों इतना ही तो किराया है....भई हर रोज जाता हूं.....जाता हूं से मतलब पांच और निकाल .....बेटा किसी से पूछ लो...कोई बोल दे तो ले लो.....बस मेरी है...कंडक्टर मैं हूं...किसी और से क्यों पूछ्छूं....पांच निकालल..नहीं तो उतर जा.....बुढ़े ने कहा....बेटा तुम्हारे जैसे मेरे नाती पोते हैं...तमीज़ से बात तो कर.....बाबा...तमीज से गड्डी नहीं चलती.....पांच निकाल वर्ना उतर जा.....बूढ़े बाबा ने पांच की हरी पत्ती निकाल कर कंडक्टर को देने में ही भलाई समझी...अब इस उमर में बीच रास्ते में बस से उतरना भी ठीक नहीं......

2 टिप्पणियाँ:

सफर में घटने वाले इन वाकयों के माध्यम से आप जिंदगी के सफर की हकीकत को सामने रख रहे हैं।
वाकई आपका ये प्रयास काबिले तारीफ है। हर बार एक नया सफर और हर बार एक नया अनुभव और एक नई कड़वी सच्चाई।
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सही कहा ...............जीसकी लाठी.....
आज कल का माहोल ही येसा हो गया है. कही ना कही हम सब जुम्मेदार है.
हमें अपनी सोच बदलनी ही पड़ेगी.

राजीव महेश्वरी